विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Saturday, January 21, 2023

दुरूहता से दूर, काव्य-रस से भरपूर दोहे

दुरूहता से दूर, काव्य-रस से भरपूर दोहे

शब्द-कुठारा चल पड़ा, करने जमकर वार।
केवल शुचिता बच रहे, सुन्दर हो संसार।।

आये याद कबीर दोहाकार रघुविन्द्र यादव का तीसरा दोहा संग्रह है| कवि का आक्रोश है– व्यवस्था की कुचालों, सत्ता के दुराचरण, वैयक्तिक आडम्बरप्रियता, रिश्तों के खोखलेपन, अंधभक्ति, तथाकथित संतों की शर्मनाक करतूतों, माता-पिता के प्रति संतान के उपेक्षित व्यवहार, स्वार्थ की पराकाष्ठा, किसान-मजूर की दुर्दशा, घटते भाईचारे, मीडिया की कारगुजारी, नशाखोरी, संवेदनहीनता, कूपमण्डूकता तथा सामाजिक भेदभाव के प्रति। विसंगतियों, विद्रूपताओं को केन्द्र में रखकर कलम चलाई गई है, वहीं कवि मानव मात्र को संदेश देना नहीं भूला है। पीड़ा के इन मजमूनों में खुदा को भी नहीं बख़्शा गया–

ऊपर बैठे लिख रहा, सबके जीवन लेख।
हिम्मत है तो या खुदा, जग में आकर देख।।

जीवन है तो समस्याएँ हैं; उनके निराकरण हेतु कवि का आह्वान है–

हाथ बढाओ साथियो, मन से खौफ निकाल।
आओ सत्ता से करें, खुलकर रोज़ सवाल।।

संग्रह के अनेक दोहे कालजयी कोटि के हैं, यथा –

कुत्ता बेशक भौंक ले, कितनी ऊँची टेर।
वही रहेगा उम्र भर, नहीं बनेगा शेर।।

दौलत देती है कहाँ, कभी किसी का साथ। 
सभी सिकंदर लौटते, जग से खाली हाथ।।
 
छंद तपस्या माँगते, यादव रखना याद।
बिना तपे बनता नहीं, लोहा भी फौलाद।।

दिन-दिन बिगड़ते माहौल को देखकर कवि चेताता है-

गलत-सही का फैसला, अगर करेगी भीड़।
भाईचारा छोड़िये, नहीं बचेंगे नीड़।।

आमजन को सचेत किया है कि कुपात्र को सत्ता सौंपने से बचें अन्यथा–

झूठों को सत्ता मिले, भांड़ों को सम्मान।
हिस्से में ईमान के, तपता रेगिस्तान।।

दोहाकार की प्रश्नाकुलता साझी प्रश्नाकुलता हो जाती है जब वे कहते हैं–

भूखा है हर आदमी, सबके लब पर प्यास।
सरकारें करती रहीं, जाने कहाँ विकास।।

पाठक की अंतश्चेतना को झकझोरता एक अन्य उदाहरण है–

हिम्मत टूटी हंस की, डोल गया विश्वास।
काग मिले जब मंच पर, पहने धवल लिबास।।

भाव-गहनता के आधार पर मैं इस दोहे को सबसे ऊपर रखती हूँ–

जीवन भर लड़ता रहा, मैं औरों से युद्ध।
वो खुद से लड़कर हुआ, पल भर में ही बुद्ध।।

भाव व कला की उत्कृष्टता का नमूना देखिए–

कनक खेत में खप गई, सस्ती बिकी कपास।
रामदीन रुखसत हुआ, खा गोली सल्फास।।

कवि की व्यंजना-क्षमता को प्रमाणित करता है यह दोहा–

कितने दर्द अभाव हैं, झोपड़ियों के पास।
फिर भी महलों की तरह, रहती नहीं उदास।।

कवि पुन: पुन: सत्ता के स्वभाव पर चुटकी लेता नहीं थकता–

सत्ता ने अब कर लिए, आँख, कान सब बंद।
उसको शब्द विरोध के, बिलकुल नहीं पसंद।।

प्रतीक शैली, विरोधाभास अलंकार तथा कटूक्तियों का खुलकर प्रयोग किया गया है, प्रत्येक का एक-एक उदाहरण पेश है–

सूरज की पेशी लगी, जुगनू के दरबार।
हुई गवाही रात की, दोषी दिया करार।।

खुद को अब हीरा कहो, बढ़-चढ़ बोलो बोल।
जितना बढ़िया झूठ है, उतना ऊँचा मोल।।

भात-भात करते मरी, भारत की संतान।
शासक गंगा गाय की, छेड़ रहे हैं तान।।

दोहों में लयात्मकता, गेयता, ध्वन्यात्मकता के गुण विद्यमान हैं। कला पक्ष, भाव-पक्षपर खरे उतरते हैं ये दोहे। संग्रह का मुखपृष्ठ अर्थपूर्ण व मूल्य वाज़िब है। दोहाकार ने आत्मकथ्य में अपने दोहों की चोरी की बात लिखी है। देखिए न, मोतियों के सामने कंकरों की क्या बिसात? चोरी करनी ही है तो यूनीक की करे। मेरे कथन का अर्थ चौर्य-कर्म को मान्यता देने से नहीं, कवि के रचना-कौशल से है। साहित्यिक गलियारों में प्राय: पाठकों की कमी का रोना रोया जाता है। मेरे मतानुसार लेखन में दम हो तो पाठकों की कमी नहीं। वस्तुत: यही है लेखन की सार्थकता और कवि/लेखक की सफलता। कवि की इस चाहना से भला कौन सहमत नहीं होगा–

पढ़ पायेंगे क्या कभी, ऐसा भी अख़बार।
जिसमें केवल हो लिखा, प्यार, प्यार बस प्यार।।

रघुविन्द्र यादव डंके की चोट पर नाद करते हैं–

बेशक जाए जान भी, सत्य लिखूँगा नित्य।
क्या है बिना ज़मीर के, जीने का औचित्य?

कामना है, कवि का यह हौंसला नित नई बुलंदी पाता रहे। संग्रह के प्रकाशन पर हार्दिक बधाई एवं अनन्त शुभकामनाएँ।

-कृष्णलता यादव
गुरुग्राम 122001

Monday, January 16, 2023

उजालों की ओर अग्रसर करती लघुकथाएँ

उजालों की ओर अग्रसर करती लघुकथाएँ 

हिन्दी लघुकथा के ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में नजर घुमा कर देखें तो हिन्दी लघुकथा को डेढ़ शताब्दी पूर्ण होने को है। हिन्दी लघुकथा काल विभाजन के अनुसार हिन्दी लघुकथा काल (1875 से 1970) व आधुनिक हिन्दी लघुकथा, हिन्दी लघुकथा का ही एक परिष्कृत एवं संवर्द्धित रूप है, जो उसकी भाषा शैली, शिल्प एवं प्रस्तुतीकरण में साफ़ तौर से देखने को मिलता है। इस डेढ़ सदी के समय में सैंकड़ों लघुकथाकार आये और हजारों लघुकथाएँ लिखी गईं। सामान्य आँकड़ों को देखा जाये तो पिछली सदी के आधुनिक हिन्दी कथाकाल (1971-2000 तक) में रचित लघुकथाओं की संख्या से 21वीं सदी के प्रारम्भिक दो दशकों (2001-2021 तक) में लिखी लघुकथाएँ लगभग पाँच गुना अधिक हैं, जिसमें दूसरे दशक में लघुकथा लेखन अनुपातिक दृष्टि से कहीं अधिक हुआ है। इस पन्द्रह दशकीय लघुकथा लेखन से गुजरने तक एक तथ्य और सामने आया है कि इक्कीसवीं सदी में महिला लघुकथाकारों की संख्या में आश्चर्यजनक इजाफा हुआ है। निश्चित तौर पर इनमें से कुछ महिला लघुकथाकार अच्छा लेखन लेकर लघुकथा साहित्य में आई हैं। कुछ ऐसी महिला लघुकथाकार हैं जो बीसवीं सदी से लघुकथा लेखन से वर्तमान समय तक निरन्तरता बनाए हुए हैं, जिन्होंने आधुनिक हिन्दी लघुकथा साहित्य को नये आयाम दिये हैं। उन महिला लघुकथाकारों की प्रथम पंक्ति में खड़ी दिखाई देती हैं श्रीमती कृष्णलता यादव, जिन्होंने अपने पाँच मौलिक एकल लघुकथा संग्रह देकर आधुनिक हिन्दी लघुकथा साहित्य में श्रीवृद्धि की है। प्रचार-प्रसार से दूर रहकर लघुकथा लेखन की एक समर्पित रचनाकार हैं श्रीमती यादव। इन्होंने बाल साहित्य, काव्य, व्यंग्य व समीक्षात्मक लेखन में भी कलम चलाई है लेकिन मूल रूप से ये एक लघुकथाकार के रूप में हिन्दी साहित्य जगत में पहचानी जाती हैं।

कृष्णलता जी की लघुकथाओं को मैं, इनके शुरुआती लेखन से ही पढ़ता रहा हूँ। इनका लेखन, अपने आप में मौलिक लेखन होने की छाप छोड़ता है। इनकी लघुकथाओं में नकारात्मक सोच नहीं होती, सीधी-सपाट, बिना कोई लाग-लपेट लिये सामान्य भाषा शैली की हुआ करती हैं, जिनके मर्म को पाठक आसानी से समझ सकता है।

कृष्णलता यादव का पाँचवाँ लघुकथा संग्रह ‘उजालों की तलाश’ मेरे सामने है, जो मुझे हर दृष्टि से अच्छा लगा। इस संग्रह के पठनोपरान्त, मुझे साहित्यिक नजरिये से जैसा लगा, वही मैं समीक्षात्मक दृष्टि से आपके समक्ष रख रहा हूँ।

संग्रह की कुछ लघुकथाएँ भावनाप्रधान कथ्य, सुदृढ़ शैली में, वास्तव में मन को छू लेने वाली हैं, जैसे सुबह का भूला, संकीर्णता, मीठी छुअन आदि। मैंने पाया कि लघुकथाकार सकारात्मक सोच की धनी हैं क्योंकि अधिकतर लघुकथाएँ घनात्मक पहलू लिये हुए हैं। किसी भी रचना में ऋणात्मक नजरिया दिखाई नहीं देता। ये लघुकथाएँ लेखकीय मूल्यों को बनाये रखने में सफल रही हैं। उदाहरण के तौर पर खुशियों का मूल्य, नजरिया, पकना उम्र का, सन्मार्ग की ओर, अस्तित्व का अहसास, डरा हुआ मन, पसीने का स्वाद, मुक्ति की तलाश, जेबकतरा, अंजुरी भर सुख आदि।

वर्तमान लघुकथा लेखन में अधिकतर रचनाओं में बुजुर्ग जीवन शैली में उपहास, परेशानी, अपनों द्वारा प्रताडना तथा उपेक्षाभाव दिखाया जाता है लेकिन श्रीमती यादव ने लीक से हटकर बुजुर्गों के प्रति
श्रद्धा व्यक्त करती लघुकथाओं की रचना की है, जो प्रशंसनीय एंव अनुकरणीय लेखन है। पावनता प्यार की, उलझनें, दादी का महात्म्य, भविष्य की चारपाई, सेतु, आत्मा का नाद, दुलार, मन की परतों का खुलना, पनियायी आँखें, संवेदनाएँ, पुरखों की गंध जैसी लघुकथाएँ बुजुर्गों के प्रति मान- सम्मान, अपनापन व श्रद्धा अभिव्यक्त करती हैं।

गरीबी अभिशाप नहीं अपितु एक आर्थिक परिस्थिति है, और जिस पुरुष ने उक्त युक्ति को समझ लिया वह मानव के रुप में मसीहा होता है। निदान, प्रवेश शुल्क, सुपोषण, बेड़ियाँ, समाज, मजबूरी, मापदंड, रतजगा, थिगली जैसी लघुकथाओं के माध्यम से ऐसा ही कुछ बताने की कोशिश लेखिका ने की है।

शाश्वत सत्य माना जाता है कि नारी का कोमल हृदय होना एक नारीत्व मूल्य है। इसी कथन को प्रमाणित करती मानवीय मूल्यों की पक्षधर लघुकथाएँ इस संग्रह में पढ़ने को मिलती हैं। संवेदन के पहलू, जीवन दर्शन, सुधियों के गीत, दुविधा के दोराहे पर, एक समझदार निर्णय, मनोबल, युद्ध का सत्य, हृदय निधि, साझा खाता, वात्सल्य पर्व, ममता का तकाजा, कोरोना काल आदि रचनाओं को इस श्रेणी में रखा जा सकता है।

नारी होने के नाते कृष्णलता जी ने नारी जीवन को नजदीक से देखा-परखा-भोगा है। अपनी अनुभवी दृष्टि से, नारी जीवन शैली को, सुन्दर शब्दों में नारी विमर्श हित कुछ लघुकथाएँ पाठकों के समक्ष रखी हैं, जैसे कर्मफल, चाहत के पायदान, कायान्तरण, दुनिया के रंग, सयानी औरत, उतरना माँ का, गरीबनी, पत्नी-धर्म तथा कितने वहम।

बाल जीवन अपने आप में एक अनमोल जीवनावस्था है, जो बेबाक, निश्चल, निडर एवं समस्याओं से परे होता है, बात-बात में न जाने कब क्या कह जाये। बाल मनोविज्ञान पर आधारित कला की मूर्तता, भुक्खड़, खुशियों के रंग, आवरण, कुछ उथला कुछ गहरा, प्रतिभा संरक्षण, असली बसंत, मारकता आदि रचनाएँ पढ़ने को मिलती हैं। लेखिका ने ऐसी शख्शियतों की भी पोल खोलने की हिमाकत की है जो कहते कुछ औऱ करते कुछ हैं। चेहरे पर मुखौटा लगाये, समाज के प्रतिनिधि की भूमिका निभाते देखा जाता है उन्हें। करनी-कथनी के अंतर को इंगित करती इनकी रचनाएँ हैं - दिखावे का सत्य, आईना दिखाना, शब्द सुनामी, अनूठी बात, वाह से आह तक, मैं शिव नहीं आदि । सनातन सत्य है कि कला को एक कला पारखी ही समझ पाता है बाकियों के लिये तो वे बेस्वादली हरकतें हैं, इस तथ्य को प्रमाणिकता प्रदान करती लघुकथाएँ भी इनकी कलम से निकली हैं, मन तरंग, भावों की दुनिया, लोकार्पण, किरचें और मरहम, कहानी का संसार लघुकथाएँ इस श्रेणी में गिनी जा सकती हैं।

अपने ही वंश का एक सामाजिक समूह होता है परिवार। परिवार में दुख-सुख व खुशियों भरे पलों की घटनाएँ घटना आम जीवन की सौगातें हैं। ये क्षण ही पारिवारिक सदस्यों को अटूट बंधन में बाँधे रखते हैं। पारिवारिक मोह को दर्शाती लघुकथाएँ संग्रह में अलग ही चमकती दिखाई देती हैं, जो वास्तव में परिवार में सामंजस्य बिठाती, स्नेह-श्रद्धा व अपनेपन को प्रेरित करती लाजवाब रचनाएँ बन पड़ी हैं, बतौर उदाहरण मदद, अपनी मिट्टी अपना देश, यथार्थ बनाम कल्पना, एक दूजे के लिए, दृश्य बदल गया, यूँ बनी बात और शांति के लिए।

वैसे तो लेखिका ने लगभग सभी विषयों पर लेखनी चलाई है लेकिन कुछ विषयों पर बहुत कम लिखा है जैसे पंडे-पुजारियों के आचरण पर, आत्मविश्वास, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ। कुछ विषय लेखिका की नजरों से छूट गये जिन पर एक भी लघुकथा नहीं है, जैसे दलित विमर्श, किन्नर जीवन शैली, कन्या भ्रूण हत्या, पौराणिक संदर्भ, देश विभाजन त्रासदी तथा राजनीति।

पूरे संग्रह से गुजरने पर यह सामने आया कि कुछेक लघुकथाओं में पात्रों को नामों के द्वारा संबोधित किया गया है जैसे मारकता लघुकथा की शुरुआत ‘अपनी पोती नेहा के होठों से ....।’ की गई है। यहाँ सिर्फ पोती शब्द से काम चल सकता था। यूँ बनी बात में भी ‘धीरू, नीरू दोनों भाइयों ....’ से पंक्ति की शुरुआत की गई है जबकि दोनों भाइयों लिखे जाने पर भी लघुकथा का वही भाव रहता। कुछ और लघुकथाएँ भी हैं जो नामित संबोधन शैली में रची गईं हैं।

संग्रह में पुस्तकीय शीर्षक वाली कोई रचना नहीं, लेकिन सभी लघुकथाएँ उजालों की तलाश की ओर प्रेरित करती बेहतरीन लघुकथाएँ हैं, जो पाठकों को ज्ञानप्रद- प्रेरणास्पद मार्ग की ओर अग्रसर करती हैं। इस रचना संसार में लेखिका का परिश्रम झलकता दिखाई देता है। अहसास होता है कि निश्चित तौर पर ही कृष्णलता जी हिन्दी लघुकथा साहित्य की एक सशक्त लघुकथाकार हैं। इनकी अपनी एक मौलिक शैली है, जो इन्हें भीड़ से अलग खड़ा करती है। ये सभी रचनाएँ अनुभवी जीवन एवं परिपक्व सोच से उपजी बेजोड़ लघुकथाएँ हैं।

कृष्णलता जी की लेखनी को नमन करते हुए मैं इनके सुखद, सफल एवं स्वस्थ लेखकीय जीवन की शुभकामनाएँ देता हूँ।

पुस्तक – उजालों की तलाश
लेखिका – कृष्णलता यादव
प्रकाशक – श्वेतवर्णा प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ – 128, मूल्य – 195 रु.
डॉ. रामकुमार धोटड़
सादुलपुर ( राजगढ़ ) जिला – चूरू (राजस्थान) 
मो.– 94140 86800

कुण्डलिया छंद के सात हस्ताक्षर : एक ऐतिहासिक कुण्डलिया संकलन

कुण्डलिया छंद के सात हस्ताक्षर : एक ऐतिहासिक कुण्डलिया संकलन

कविता के लिये छन्द का अनुशासन आवश्यक माना गया है। छन्द ही कविता को गद्य से अलग पहचान देता है, परन्तु विगत वर्षों में किसी प्रकार के छन्द का पालन न करते हुए गद्यनुमा वक्तव्य को भी कविता कहा जाने लगा परिणामस्वरूप तमाम तथाकथित कवियों की बाढ़ सी आ गई। निराला जी ने कविता को छन्द से मुक्त करने की बात नहीं कही बल्कि छन्द को पारम्परिक बंधन से मुक्त करने की बात कही अर्थात कविता में छन्द तो रहे परन्तु वह मुक्त छन्द हो जिसका कवि अपने अनुसार निर्वहन करे साथ ही कविता में लय और प्रवाह भी रहे ताकि कविता कविता जैसी लगे। परन्तु परवर्ती रचनाकारों ने निराला के मुक्तछन्द को छन्दमुक्त मान लिया और गद्य को भी कविता कहने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि सुधी पाठकों का कविता से मोह भंग होने की स्थिति सी आ गई है।

छन्दयुक्त कविता पाठक को आकर्षित करती है और अपना एक प्रभाव छोड़ती है। दोहा, चौपाई, सोरठा, वरबै, सवैया, कवित्त, कुण्डलिया आदि छन्दों में लिखी न जाने कितनी कविताएँ आज भी पाठको को कण्ठस्थ हैं। लोक जीवन में तो आज भी कबीर के दोहे, तुलसी की चौपाइयाँ और गिरिधर की कुण्डलियाँ बात बात पर लोगों के लिये लोकशिक्षक की तरह उनके दैनिक जीवन में प्रचलित हैं।
कुण्डलिया लोक का अपना बहुत प्रिय छन्द रहा है, कवि गिरिधर ने लोक जीवन की तमाम बातें इस छन्द में कहकर इसे लोकप्रिय बनाया। किसानों के लिये तो गिरिधर की कुण्डलियाँ लोकवेद के समान हो गई थीं, चाहे वह बैलों की पहचान कराने की बात हो या खेत में बीज बोने, निराने, पानी देने, काटने की बात हो या फिर दैनिक जीवन में काम आने वाली छोटी-छोटी बातें हो कुण्डलियों के माध्यम से हर प्रश्न का उत्तर मिलता रहा है। यही कारण रहा कि कुण्डलिया बहुत लोकप्रिय हो गई।
दुर्भाग्य यह रहा कि कुण्डलिया जैसे लोकप्रिय छन्दों को कुचक्र रचकर तिलांजलि सी दे दी गई। यह सच है कि कविता अपने समय को साथ लेकर चलती है जिस कविता में समय को पहचानने की सामर्थ्य नहीं होती है वह कविता अतिशीघ्र कालकवलित हो जाती है। कुण्डलिया में यदि समसामयिक विषयों को कविता का विषय बनाया जा सके तो आज भी कुण्डलिया अपनी पुरानी लोकप्रियता को प्राप्त कर सकती है। यह एक चुनौती भरा कार्य है क्योंकि कुण्डलिया में प्रसादात्मकता होती है इसमें बहुत सहज और सरल ढँग से बात कही जाती है।

त्रिलोक सिंह ठकुरेला बहुत अच्छे नवगीत और हाइकु लिखते रहे हैं परन्तु इस मध्य उन्होंने कुण्डलिया छन्द को पूरी तरह साध लिया। ‘कुण्डलिया छंद के सात हस्ताक्षर’ पुस्तक का सम्पादन कर उन्होंने कुण्डलिया को पुनर्जीवित करने के दिशा में एक बड़ी पहल की है। मेरे संज्ञान में संभवतः कुण्डलिया कविताओं का यह पहला संकलन है जिसमें सात कवियों की २२-२२ कुण्डलियों को सम्पादित कर प्रकाशित किया गया है। संकलन के कवियों ने समसामयिक विषयों को कुण्डलियों में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।

महँगाई से सब त्रस्त हैं, आम आदमी के लिये सामान्य जीवन जीना मुश्किल होता जा रहा है। आम आदमी की इस ज्वलन्त पीड़ा को डा. कपिल कुमार की इस कुण्डलिया में महसूस किया जा सकता है-

महँगाई की मार से, बचा न कुछ भी आज
तेल, मसाले, सब्जियाँ, दालें और अनाज
दालें और अनाज, दूध, घी सभी सिसकते
दुगने-तिगुने भाव, फलों को केवल चखते
कहें ‘कपिल’ कविराय, अजब बीमारी आई
मिलता नहीं निदान, नाम जिसका महँगाई।
 

-डा. कपिल कुमार, (पृष्ठ-२४)

भ्रष्टाचार से प्रत्येक व्यक्ति त्रस्त है परन्तु इसका कोई निदान निकट भविष्य में सूझ नहीं रहा है, यह एक भयानक कोढ़ है जो समाज में फैलता चला जा रहा है। ‘गाफिल स्वामी’ की यह कुण्डलिया समाज में परिव्याप्त भ्रष्टाचार त्रस्त एक आम आदमी की पीड़ा और विवशता को अभिव्यंजित कर रही है-

ऊपर वाला सो रहा, अपनी चादर ओढ़
फैल रहा संसार में, भ्रष्टाचारी कोढ़
भ्रष्टाचारी कोढ, दुःखी है जनता सारी
चाहे जग मर जाय, मौज में भ्रष्टाचारी
कह गाफिल कविराय, भ्रष्ट का जीवन आला
दीन दुःखी लाचार, सो रहा ऊपर वाला।

-गाफिल स्वामी, (पृष्ठ-३६)

पर्यावरण संतुलित रहे इसके लिये वनों का संरक्षण आवश्यक है परन्तु मनुष्य बिना सोचे समझे जंगलों को अंधाधुंध काटता जा रहा है और पर्यावरण को भारी नुकसान पहुँचा रहा है। डा. जगन्नाथ प्रसाद बघेल की इस कुण्डलिया में जंगलों के विनाश की इसी त्रासदी को देखा जा सकता है-

जंगल हैं कंक्रीट के, शहर हमारे आज
हुआ जंगली जीव सा, सारा सभ्य समाज
सारा सभ्य समाज, मात्र सम्पति का भूखा
कुल तक सीमित नेह, रहा संवेदन सूखा
कह ‘बघेल’ कविराय, सभी के स्वार्थ प्रबल हैं
चरागाह की तरह, शहर धन के जंगल हैं।
-डा. जगन्नाथ प्रसाद बघेल, (पृष्ठ-४६)

शहरों को गाँवों में पहुँचने का सपना स्वतंत्रता से पहले देखा गया था परन्तु आज हम देख रहे हैं कि शहर तो गाँवों में नहीं पहुँच सके बल्कि गाँव शहरों में पहुँचने लगे हैं साथ ही गाँव का गाँवपन भी कहीं गुम होने लगा है। गाँवों में पनपती लोक संस्कृति, लोकभाषा, लोकगीत, लोकगाथाएँ, लोक कहावतें, लोकमुहावरे आदि सभी के विलुप्त होने का खतरा बढ़ गया है। गाँव का सहज भोलापन, रीतिरिवाज, लोकाचार, पारिवारिक अनुशासन आदि सब खोजने पर भी नहीं मिलते हैं, यह सब परिवर्तन शहरों की चकाचौंध के कारण हुआ है। अपने लोकसंस्कारों और लोकसंस्कृति से निरन्तर दूर होते जाना हमारे लिये एक आत्मघाती कदम है। डा. रामसनेही लाल शर्मा यायावर की यह कुण्डलिया लोक के छीजने की इसी वेदना को व्यक्त कर रही है-

भूख शहर की बढ़ गयी, सब कुछ लेता खाय
खेत, गाँव पगडण्डियाँ, भैंस, बैल औ गाय
भैंस, बैल औ गाय, खिलखिलाहट पनघट की
दादा की फटकार, हँसी भोले नटखट की
नेम, क्षेम, उल्लास, प्रीति छीनी घर घर की
चितवन घूँघट छीन, खा गयी भूख शहर की।
-डा. रामसनेही लाल शर्मा यायावर, (पृष्ठ-५६)

आज के बच्चे ही कल का भविष्य होते हैं, जिस देश के बच्चों की ठीक से परवरिश नहीं होती एवं बच्चों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं होती, उस देश का भविष्य कभी अच्छा नहीं हो सकता। हमारे यहाँ बच्चों की शिक्षा पर यूँ तो ध्यान दिया जा रहा है, तमाम योजनाएँ बनाई गयीं हैं फिर भी जिस तरह की शिक्षा बच्चों के लिये होनी चाहिये वह देखने को नहीं मिल रही है। कचरे के ढेर में से बचपन तलाशते बच्चे किसी भी शहर और कस्वों में प्रायः दिख जाते हैं, हमारी व्यवस्था पर यह एक बड़ा प्रश्न चिह्न है। शिवकुमार दीपक की इस कुण्डलिया में यही पीड़ा उभर कर सामने आयी है-

बाल दिवस पर शहर में, सपने मिले उदास
कचरा वाले ढेर पर, जीवन रहे तलाश
जीवन रहे तलाश, नहीं शिक्षा मिल पाती
बढ़ा उदर भूगोल, पेट की आग भगाती
कह ‘दीपक’ कविराय, पढ़ाई नहीं मयस्सर
भोजन रहे तलाश, बाल कुछ बाल-दिवस पर
-शिव कुमार दीपक, (पृष्ठ-६८)

मानव जीवन के लिये वृक्षों का बहुत बड़ा योगदान है, यदि पृथ्वी पर वृक्ष न होते तो मानव जीवन संभव ही नहीं हो पाता, इसलिये वृक्षों को ईष्वरीय वरदान भी माना गया है। सुभाष मित्तल सत्यम ने वृक्षों के द्वारा की जाने वाली प्राणियों की सेवा को प्रस्तुत कुण्डलिया में व्यक्त किया है-

परम पिता की कृपा का, वृक्ष रूप साकार
सभी प्राणियों के लिये, जीवन का आधार
जीवन का आधार, नमी कर घन बरसाते
वर्षा-जल गति रोक, भूमि जल सतह बढ़ाते
भूमि अपरदन रोक, वृद्धि मृद-उर्वरता की
‘सत्यम’ सचमुच वृक्ष, कृपा है परम पिता की।
-सुभाष मित्तल सत्यम, (पृष्ठ-७७ )

त्रिलोक सिंह ठकुरेला अपनी कविताओं में सकारात्मक पक्ष को प्रस्तुत करते हैं, उनके नवगीत हों या हाइकु, सभी में वे अपने कथ्य को प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत करते हैं। कविता का उद्देष्य भी यही है कि पाठक को प्रगति की दिशा में बढ़ने की प्रेरणा दे। सफलता और असफलता तो एक दूसरे की पूरक हैं, असफलता ही सफलता का मार्ग प्रशस्त करती है, इसलिये असफलता से कभी निराश नहीं होना चाहिए, मंजिल उन्हें ही मिल पाती है जो जीत हार की चिन्ता न करते हुए, बाधाओं का बहादुरी से सामना करते हैं और निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं। त्रिलोक सिंह ठकुरेला ने अपनी इस कुण्डलिया में कर्म पथ पर चलते रहने की यही प्रेरणा दी है-

असफलता को देखकर, रोक न देना काम
मंजिल उनको ही मिली, जो चलते अविराम
जो चलते अविराम, न बाधाओं से डरते
असफलता को देख, जोश दूना मन भरते
‘ठकुरेला’ कविराय, समय टेड़ा भी टलता
मत बैठो मन मार, अगर आये असफलता।
-त्रिलोक सिंह ठकुरेला, (पृष्ठ-९६)

कुण्डलिया के इस अप्रतिम संकलन में सात कवियों की 154 कुण्डलियाँ हैं जो कि विविध विषयों को प्रस्तुत करती हैं। छन्द की दृष्टि से सभी कुण्डलियाँ ठीक हैं। सभी कवि अपने अपने क्षेत्र के प्रतिष्ठित रचनाकार हैं। इस संकलन के सम्पादक त्रिलोक सिंह ठकुरेला ने कुण्डलिया संकलन का सम्पादन करके एक ऐतिहासिक कार्य किया है। उनका यह कार्य छान्दस कविताओं को पुनः उनका स्थान दिलाने की दिशा में संघर्ष कर रहे रचनाकारों के महायज्ञ में एक बड़ी आहुति के समान है। इस संकलन से प्रेरणा लेकर कुछ अन्य कुण्डलिया संकलन तथा कुण्डलिया संग्रह प्रकाश में आयेंगे एवं जो कवि कुण्डलिया तथा अन्य समसामयिक छान्दस कविताओं को लिखकर अपनी डायरी तक ही सीमित रख रहे हैं वे भी अपनी उन कविताओं को प्रकाशित कराने का साहस कर सकेंगे। कुण्डलिया छन्द में यदि वर्तमान सन्दर्भों को प्रस्तुत किया जा सके तो निष्चय ही कुण्डलिया को अपनी खोई हुई लोकप्रियता प्राप्त करने से कोई नहीं रोक सकता।

पुस्तक का मुद्रण, आवरण, रचना चयन सब कुछ उत्तम है। राजस्थानी ग्रंथागार से प्रकाशित ९६ पृष्ठ की पक्की जिल्द वाली इस पुस्तक की कीमत १५० रुपए है जो उचित ही है। इस पुस्तक का छन्द प्रेमी पाठक स्वागत करेंगे।

कुण्डलिया संकलन - कुण्डलिया छंद के सात हस्ताक्षर
सम्पादक - त्रिलोक सिंह ठकुरेला
प्रकाशक - राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर
पृष्ठ - 96
मूल्य -150 रुपये

समीक्षक - डा. जगदीश व्योम

Sunday, January 15, 2023

समय की पगडंडियों पर : उत्कृष्ट गीतों का संकलन

समय की पगडंडियों पर : उत्कृष्ट गीतों का संकलन

गीत का फलक विस्तृत है। साहित्य की सबसे  प्राचीन विधा होने के साथ- साथ आज भी गीत मानवीय हृदय के सबसे नजदीक है। गीत विधा की परंपरा को विस्तार देता एक गीत संग्रह "समय की पगडंडियों पर" चलते हुए अनेक इंद्रधनुषी अनुभव समेट कर साहित्य अनुरागियों के लिए उत्कृष्ट गीतों का गुलदस्ता लेकर आया है।
प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री त्रिलोक सिंह ठकुरेला जी द्वारा रचित गीत संग्रह "समय की पगडंडियों पर" पढ़ने का सुंदर सुयोग बना। इस संग्रह के   गीतों एवं नवगीतों में समाहित  माधुर्य, गाम्भीर्य, अभिनव कल्पना, सहज, सरल भाषाशैली, गेयता की अविरल धार, हृदयतल  को अपनी  मनोरम सुगन्ध से भर गई।  बाल साहित्य, कुण्डलिया छंद व अनेक काव्य विधाओं में अपनी लेखनी का लोहा मनवाने वाले वरिष्ठ साहित्यकार श्री ठकुरेला जी  ने बड़ी संजीदगी से अपनी गहन अनुभूतियों  को गीतों में उतारा है।

इन गीतों में कभी शृंगार की झलक दिखाई देती है तो कभी जीवन दर्शन। कभी देश प्रेम का रंग हिलोर लेता है तो कभी सामाजिक विसंगतियाँ। बड़ी खूबसूरती से गीतों में छंद परम्परा का निर्वाह किया गया है। प्रबल भाव, सधा शिल्प सौष्ठव। हर दृष्टिकोण से इस संग्रह के गीत भाव एवं कला पक्ष की कसौटी पर कसे हुए हैं।  "करघा व्यर्थ हुआ कबीर"   इस गीत में कवि ने बदलते परिवेश एवं आधुनिक जीवन शैली की और इशारा करके प्रतीतात्मक शैली का प्रयोग किया है। नवगीतों में अदभुत प्रयोग देखते ही बनता है।

करघा व्यर्थ हुआ
कबीर ने
बुनना छोड़ दिया

काशी में नंगों का बहुमत
अब चादर की किसे जरूरत
सिर धुन रहे कबीर
रुई का
धुनना छोड़ दिया

बेरोजगार शिल्पकारों और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य का  सजीवचित्रण करते हुए कवि अपनी वेदना व्यक्त करता है। गुजरे जमाने का स्मरण करते हुए  कवि  पाषाण बनती जा रही मानवीय संवेदना देख  व्याकुल है। कवि मन कहता है कि अब सामाजिक मूल्यों का कोई मोल नहीं क्योंकि लोग काँच को ही मोती समझ रहे हैं। एक अन्य गीत गीत "बिटिया" के माध्यम से कवि ने मन के अहसास  को शब्द देकर नारी शोषण पर करारा प्रहार किया है।

बिटिया।
जरा संभल कर जाना
लोग छिपाए रहते खंज़र
गाँव, शहर
अब नहीं सुरक्षित
दोनों आग उगलते
कहीं कहीं तेजाब बरसता

कवि का कोमल मन समय का दर्पण देख गीत के माध्यम से बिटिया की पीड़ा को शब्द देकर कह रहा है कि अब वह कहीं भी सुरक्षित नहीं। तेजाब कांड के प्रति रोष जताते हुए कवि ने पथभ्रष्ट युवाओं  को काँटे दार वृक्ष की संज्ञा दी है। ठूठ होते संस्कारों से सावधान करता हुआ कवि हृदय बेटियों के साथ होती दुखद घटनाओं से आतंकित हैं।

आखिर कब तक
चुप बैठेंगे
चलों वर्जनाओं को तोड़ें
जाति, धर्म, भाषा में
उलझे
सबके चेहरे बंटे हुए हैं
व्यर्थ फँसे हुए हैं
चर्चाओं में
मूल बात से कटे हुए हैं
आओ बिखरे संवादों की
कड़ियाँ कड़ियाँ फिर से जोड़ें।

"कड़ियाँ फिर से जोड़ें" आशा से भरा यह नवगीत इस बात का परिचायक है कि कवि आज भी लहरों में भटकी कश्तियों के किनारे पर आने की आशा रखता है। आज कवि आवाज दे रहा है कि जात-पात, धर्म, भाषा से ऊपर उठकर हम नए भारत का निर्माण करें। इसके अलावा हरसिंगार रखो, अर्थ वृक्ष, मन उपवन, मिट्टी के दीप, बदलते मौसम, सुनों व्याघ्र  आदि गीतों एवं नवगीतों का काव्य सौन्दर्य सराहनीय है।

आँखें फाड़े
खड़े हुए हैं
राजमहल के आगे
शायद राजा जागे।
इस नवगीत के मुखड़े से ही इसकी सारी खूबसूरती प्रकट हो जाती है। राजनीतिक तानशाही के प्रति विद्रोह के तीव्र स्वर जब विस्फुटित होते है तब मन मे दबा आक्रोश जगजाहिर हो जाता है। शासक कुम्भकरणी निद्रा के वशीभूत है। राजनीतिक दल अपने अपने स्वार्थ सिद्धि में लगे हैं। कवि के मन मे सुलगती चिंगारी अब गीत का रूप लेकर प्रज्वलित हुई है।
जब मन उद्वेलित होता है तब  प्रेम की सरस, मधुर बूँदे हृदय को शीतलता प्रदान करती हैं।
शृंगार रस के गीतों में कवि का प्रियतम के प्रति समर्पण भाव का परिचय मिलता है।  

मैं अपना मन मन्दिर कर लूँ
उस मंदिर में तुम्हें बिठाऊँ।
वंदन करता रहूँ रात-दिन
नित गुणगान तुम्हारा गाऊँ।

गीतों में कहीं प्रेम की पराकाष्ठा है तो कभी विरह की कठिन घड़ियाँ।
कवि "दिन बहुरंगे",  गीत के द्वारा स्वार्थ की नींव पर टिके रिश्तों की  तस्वीर दिखलाता है, तो कभी पिता के विशाल चरित्र को शब्दों में ढालने का सफल प्रयास करता है। यह संग्रह में ८२ गीतों की माला है माला के हर मोती की आभा अनोखी है। जड़ों से जुड़ी भावनाओं से रचे गए गीत मन के तार छूने में सक्षम हैं।

"समय की पगडण्डियों पर" गीत संग्रह का प्रकाशन "राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर" के आर्थिक सहयोग से होना सुखद है।  यह पुस्तक पढ़ना अत्यंत सुखद रहा। श्री ठकुरेला जी पेशे से इंजीनियर हैं।   अनेक पुस्तकों का सम्पादन कर चुके हैं। उनके तीन एकल संग्रह प्रकाशित हैं। मुझे विश्वास है यह गीत संग्रह पाठक  वर्ग में अपना उच्च स्थान बनाएगा। आशा करती हूँ कि शीघ्र ही उनकी अन्य कृतियों से हमें रूबरू होने का अवसर मिलेगा।

गीत नवगीत संग्रह- समय की पगडंडियों पर,
रचनाकार- त्रिलोक सिंह ठकुरेला,
प्रकाशक- राजस्थानी ग्रन्थागार, प्रथम माला, गणेश मंदिर के पास, सोजती गेट, जोधपुर (राजस्थान),
मूल्य- रु. 200
पृष्ठ- 112

                        समीक्षक- सुनीता काम्बोज

Thursday, January 12, 2023

काव्यगंधा’ एक सिंहावलोकन   

काव्यगंधा’ एक सिंहावलोकन  

जबसे इस वसुन्धरा पर मानव समाज अस्तित्व में आया है, तब से ही काव्य का सृजन प्रारम्भ हुआ। काव्य जीवन की सुगन्ध है और छन्द उसे गतिमान बनाता है। छन्द काव्य और जीवन में आह्लाद का संचार करता है। छन्दशास्त्र को पिंगलशास्त्र भी कहा जाता है। छन्द की परम्परा साहित्य के आदिकाल से ही प्रचलित रही है। आचार्यों ने छन्द के दो भेद किए हैं - मात्रिक छन्द और वर्णिक छन्द।  कुण्डलिया का छन्दशास्त्र में महत्त्वपूर्ण स्थान है। हिन्दी काव्य में कुण्डलिया छन्द का प्रचलन दीर्घकालीन है, जिसमें गिरधर कविराय का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

इसी  परम्परा में त्रिलोकसिंह ‘ठकुरेला’ की ‘काव्यगंधा’ कुण्डलिया-संग्रह को परिगणित किया जाता है। इस काव्य रचना में शाश्वत, हिन्दी, गंगा, होली, राखी, सावन आदि विविध विषयों पर कुण्डलिया लिखी गई हैं। कवि महोदय बड़े विचारक और संवेदनशील हैं। उनके जीवन की अनुभूति भी बड़ी गहन है।

शाश्वत से अभिप्राय है जीवन की निरंतरता और उसमें अनुभूति की हुई नीतिपरायणता तथा व्यवहारकुशलता। रचनाकार ने इस कुण्डलिया में उसी सत्य का प्रतिपादन किया है - सोना तपता आग में, और निखरता रूप। कभी न रुकते साहसी, छाया हो या धूप।। छाया हो या धूप, बहुत सी बाधा आयें। कभी ने बनें अधीर, नहीं मन में घबरायें। श्ठकुरेला श् कविराय ए दुखों से कभी न रोना।
निखरे सहकर कष्ट ए आदमी हो या सोना।।

मानव जीवन के चार पुरुषार्थांे में धन का भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रत्येक देश और काल में धन के बिना जीवन निर्वाह करना सम्भव नहीं है। ‘पंचतंत्र’ की तरह ‘काव्यगंधा’ में भी धन की महत्ता को दर्शाया गया है - दुविधा मंे जीवन कटे, पास न हों यदि दाम। रुपया पैसे से जुटें, घर की चीज तमाम।। घर की चीज तमाम, दाम ही सब कुछ भैया।। मेला लगे उदास, न हांे यदि पास रुपैया। श्ठकुरेला कविराय ए दाम से मिलती सुविधा। बिना दाम के ए मीत ए जगत में सौ सौ दुविधा।  लोक में यह उक्ति चरितार्थ है - बाप बड़ा न भैया। सबसे बड़ा रुपया। इसीलिए गिरिधर कवि इस सत्य को बहुत पहले ही अपनी कुण्डलिया में प्रमाणित कर चुके हैं - जब तक पैसा गांठ में, यार संग ही संग डोले। पैसा रहा न पास यार मुख से नहीं बोले।

इस संसार में जो जैसा करता है वैसा फल पाता है। शास्त्रों के सत्य को कवि ने इस प्रकार अभिव्यक्त किया है - कर्मों की गति गहन है, कौन पा सका पार। फल मिलते हर एक को, करनी के अनुसार।। करनी के अनुसार सीख गीता की इतनी। आती सब के हाथ, कमाई जिसकी जितनी। श्ठकुरेलाश् कविराय ए सीख यह सब धर्मों की।  सदा करो शुभ कर्म ए गहन गति है कर्मों की।   कवि ने माया, धर्म, मान-अपमान, सुख-दुःख, सफलता-असफलता, दुष्टता, सांसारिक बाह्य सौन्दर्य, धनवान, आचरण, खल की मित्रता, नारी पीड़ा, साहस, मौन, अन्तरावलोकन, संसार की असारता, सौम्य स्वभाव आदि विषयों पर शाश्वत शीर्षक के अन्तर्गत कुण्डलिया की रचना है।

कवि के हृदय में देशप्रेम की लहरें उमड़ रही हैं, जो इस कुण्डलिया में अभिव्यंजित हुई हैं - माटी अपने देश की, पुलकित करती गात। मन में खिलते सहल ही, खुशियों के जलजात।। खुशियों के जलजात, सदा ही लगती प्यारी। हांे निहारकर धन्य, करें सब कुछ बहिलारी। ‘ठकुरेला’ कविराय, चली आई परिपाटी। लगी स्वर्ग से श्रेष्ठ, देश की सौंधी माटी।।  इसी सत्य को महर्षि वाल्मीकि ने भगवान रामचन्द्र के मुखारविन्द से कहलवाया है - जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।

हिन्दी भारत की एकता का मेरुदण्ड है। कवि ने हिन्दी शीर्षक के अन्तर्गत हिन्दी की महिमा का गुणगान किया है - हिन्दी को मिलता रहे, प्रभु ऐसा परिवेश। हिन्दीमय हो एक दिन, अपना प्यारा देश।। अपना प्यारा देश ए जगत की हो यह भाषा।
मिले मान.सम्मान ए हर तरफ अच्छा खासा।
श्ठकुरेला श् कविराय ए यही भाता है जी को ।
करे असीमित प्यार ए समूचा जग हिन्दी को ।

गंगा संसार की सबसे पवित्र नदी है और भारतीयों का महान तीर्थ है। इसीलिए गंगा को पतितपावनी गंगा मैया कहा जाता है। कवि महोदय ने गंगा की महिमा का बखान इस प्रकार किया है - केवल नदियां ही नहीं, और न जल की धार। गंगा माँ है, देवी है, है जीवन आधार। है जीवन आधार, सभी को सुख से भरती। जो भी आता पास, विविध विधि मंगल करती। ठकुरेला श् कविराय एतारता है गंगा..जल।
गंगा.अमृत .राशि ए नहीं यह नदिया केवल।

होली का पर्व फाग पर्व भी कहलाता है। यह वसन्त ऋतु का त्यौहार है और भक्त प्रहलाद की अग्नि परीक्षा का दिन है। इसे पूरे भारत में बड़े चाव से रंगों के त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। कवि महोदय ने होली की बहार का चित्रण इस प्रकार किया है - होली आई, हर तरफ, बिखर गए नवरंग। रोम रोम रसमय हुआ, बजी अनोखी चंग।।

राखी का पर्व भाई-बहन के प्यार का प्रतीक है। बहन अपनी रक्षा के लिए भाई को रक्षा कवच बांधती है और भाई भाव विभोर हो जाता है। कवि ने इसका मनोहारी चित्रण किया है - राखी के त्यौहार पर, बहे प्यार के रंग। भाई से बहना मिली, मन में लिये उमंग। मन में लिये उमंग ए सकल जगती हरसाई ।
राखी बांधी हाथ ए खुश हुए बहना भाई ।
श्ठकुरेला श् कविराय एरही सदियों से साखी ।
प्यार ए मान.सम्मान ए बढ़ाती आई राखी ।

सावन में मेघमालाएं वर्षा करती हैं और धरती हरियाली से ओतप्रोत हो जाती है। सावन के महीने में हरियाली तीज और श्रावणी पूर्णिमा बड़े उमंग से मनाई जाती है। कवि महोदय ने सावन के गौरव का चित्रण इस प्रकार किया है - छाई सावन की घटा, रिमझिम पड़े फुहार। गांव-गांव झूला पड़े, गूंजे मंगल चार।। गूंजे मंगलचार, खुशी तन-मन मंे छाई। गरजें खुश हो मेघ, बही मादक पुरवाई। ‘ठकुरेला’ कविराय, खुशी की वर्षा आई। हरित खेत, वन, बाग, हर तरफ सुषमा छाई।।

विविध शीर्षक के अन्तर्गत कवि महोदय ने सामयिक समस्याओं पर कुण्डलिया की रचना की है, जिसमें किसान, देशप्रेम, महंगाई, बलवान और काव्य का मर्मस्पर्शी चित्रण किया है। किसान को अन्नदाता कहा जाता है। वह अनेक प्रकार के कष्ट सहकर अभावों में जीवन व्यतीत करता है। कवि महोदय की किसान के प्रति बड़ी सहानुभूति है - करता है श्रम रात दिन, कृषक उगाता अन्न। रुखा-सूखा जो मिले, रहता सदा प्रसन्न।। रहता सदा प्रसन्न ए धूप ए वर्षा भी सहकर ।
सींचे फसल किसान ए ठण्ड ए पानी में रहकर ।
श्ठकुरेला श् कविराय ए उदर इस जग का भरता ।
कृषक देव जीवंत ए सभी का पालन करता ।

कवि ने महंगाई को घुड़सवार की उपमा प्रदान की है - चाबुक लेकर हाथ में, हुई तुरंग सवार। कैसे झेले आदमी, महंगाई की मार।। मँहगाई की मार ए हर तरफ आग लगाये।
स्वप्न हुए सब ख़ाक ए किधर दुखियारा जाये ।
श्ठकुरेला श् कविराय ए त्रास देती है रुक रुक ।
मँहगाई उद्दंड ए लगाये सब में चाबुक ।

कविवर त्रिलोक सिंह ‘ठकुरेला’ द्वारा विरचित ‘काव्यगंधा’ कुण्डलिया-संग्रह कथ्य और शिल्प की एक अनूठी रचना है। इसमें भावों की लहर प्रवाहित हो रही है और कला का वैभव बिखर रहा है। कवि कुण्डलिया छन्द की रचना में सिद्धहस्त हैं और आधुनिक हिन्दी काव्य में कुण्डलिया छन्द के मुकुटमणि हैं।

 

डाॅ॰ बाबूराम (डी.लिट्.)

प्रो़फेसर, हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरुक्षेत्र

लेखक    ः    त्रिलोक सिंह ‘ठकुरेला’
पुस्तक    ः    काव्यगंधा (कुण्डलिया-संग्रह)
प्रकाशक    ः    नवभारत प्रकाशन, जोधपुर (राजस्थान)
संस्करण    ः    2013
मूल्य    ः    150 रुपये