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Sunday, August 14, 2011

14 अगस्त के दैनिक ट्रिब्यून के सम्पादकीय में दोहा

शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

Posted On August - 14 - 2011

आज़ादी की 64वीं वर्षगांठ मनाते वक्त तक भारतीय लोकतंत्र की आज यह स्थिति है कि सात समन्दर पार से अमेरिका नसीहत दे रहा है—’भारत सरकार शांतिपूर्ण प्रदर्शनों से निपटने के तरीकों में उचित लोकतांत्रिक संयम का परिचय दे।’ निश्चित रूप से दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश को यह नसीहत देना अटपटा लग सकता है। इस बयान से तिलमिलाई भारत सरकार ने टिप्पणी पर तल्ख प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान में निहित है और देश के 1.2 अरब नागरिक इसका प्रयोग करते हैं।’ लेकिन इसी बीच देश के गृहमंत्री का बयान आता है कि लोकपाल मुद्दे पर अन्ना हजारे की अनशन पर जाने की योजना अनुचित है। भारत सरकार व गृहमंत्री के बयानों मेें जो विरोधाभास झलकता है, उसी का नतीजा है कि अमेरिका को हमारे अंदरूनी मामलों में बयानबाजी का मौका मिलता है। स्वतंत्रता दिवस की वेला पर अन्ना हजारे के अनशन स्थल की अनुमति को लेकर केंद्र, दिल्ली सरकार व दिल्ली पुलिस-प्रशासन द्वारा जो नाटक पिछले दिनों से किया जा रहा है उसे कतई लोकतांत्रिक व अभिव्यक्ति की आज़ादी तो नहीं कहा जा सकता। यह एक हकीकत है कि लोकपाल बिल के मुद्दे पर अन्ना हजारे सरकार को कठघरे में खड़ा करने में सफल रहे हैं। सरकार की नीयत का खोट जगजाहिर हुआ। चांदनी चौक इलाके का सर्वेक्षण इसकी मिसाल है। बहरहाल, सरकार अन्ना की मुहिम से हिली तो जरूर नज़र आती है। शायद ऐसे ही हालात के लिए कवि दुष्यंत यह पंक्तियां लिख गए हैं :-
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
वास्तव में आज जिस तरह घोटाले पर घोटाले उजागर हुए हैं और कैग से लेकर अदालतों ने सीधे-तौर पर सरकार के मंत्रियों व मुख्यमंत्रियों को दागी ठहराया है, उससे केंद्र सरकार में खासी बेचैनी है। उसकी इसी बेचैनी का नतीजा है कि यह अन्ना हजारे व बाबा रामदेव के खिलाफ मोर्चे खोले हुए है। अमेरिका की टिप्पणी पर बौखलाई सरकार यह क्यों भूल जाती है कि उसने बाबा रामदेव के आंदोलन को रात के अंधेरे में कुचला, वह कौन-सी लोकतांत्रिक प्रक्रिया थी? क्या वह सब कुछ एक लोकतांत्रिक आंदोलन को कुचलने का तानाशाही तरीका नहीं था? उसके बाद भी केंद्र के इशारे पर नाचने वाली उसकी तमाम एजेंसियां व सरकारी विभाग बाबा रामदेव की जिस तरह दुराग्रह से जांच-पड़ताल कर रहे हैं क्या उसे लोकतांत्रिक कदम कहा जा सकता है? क्या वाकई सरकार अभिव्यक्ति की आज़ादी का सम्मान करती है? सही मायनों में देखें तो सरकार से देश संभल नहीं रहा है। शासन के तदर्थवादी तौर-तरीके व्यवस्था को कुव्यवस्था में तब्दील करते जा रहे हैं। इस दौरान सरकार के मंत्रियों, नौकरशाहों व दलालों के नाम करोड़ों-अरबों रुपये के घोटालों में शामिल नज़र आये हैं, उससे जनता की नज़रों में सरकार की साख धूल-धूसरित ही हुई है। ऐसे माहौल में जनभावनाओं को शब्दों में गूंथते हुए कवि रघुविन्द्र यादव बेबाक टिप्पणी कर ही देते हैं :-
लूट रहे हैं देश को, कलमाडी, सुखराम,
मिलकर राजा, राडिया चूस गए सब आम।

खबर आई है कि करोड़ों रुपये के कर-चोरी के मामले में फंसे हसन अली खान को जमानत मिल गई, वह भी सिर्फ पांच लाख के मुचलके पर। बहुत संभव है कि सौ-हज़ार रुपये के मामलों में अनेक लोग जेलों में सड़ रहे होंगे। देश में करोड़ों के घोटाले करने वाले जोड़-तोड़ के सहारे बाहर स्वच्छंद घूम रहे हैं। धनबल, बाहूबल व राजनीतिक प्रभाव के चलते पिछले कई दशकों से ऐसा होता आया है। बड़े-बड़े घोटालों में जुड़े बड़े-बड़े राजनेताओं का बाल-बांका भी नहीं हुआ। पिछले दिनों कुछ मंत्री जरूर तिहाड़ जेल की हवा खा रहे हैं लेकिन उसके मूल में उनके राज्यों में हुए राजनीतिक परिवर्तन, बड़े नेताओं को बचाने की कवायद व जनता का दबाव ही है। वास्तव में बड़े लोगों को बचाने में तो पूरी मशीनरी लग जाती है। जैसा कि कवि किशोर तिवारी तंज़ करता है :-
शायद किसी वजीर की गर्दन फंसी हुई,
हुक्काम खुद सबूत मिटाने में जुटे हैं।

लेकिन एक टकसाली सत्य यह भी है कि हमने भी एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका पिछले छह दशक में नहीं निभाई। हमने छोटे-छोटे स्वार्थों मसलन क्षेत्रवाद, जातिवाद व सांप्रदायिकता को हवा देते हुए ऐसे अपरिपक्व प्रतिनिधियों को लोकसभा व विधानसभाओं में भेजा कि उसका खमियाजा आज देश को भुगतना पड़ रहा है। ऐसी सोच के चलते त्रिशंकु सरकारें केंद्र में आई, फिर सांसदों-विधायकों की खरीद-फरोख्त का दौर चला। देश की संसद में करोड़ों रुपये को नोटों की गड्डियां लहराई गईं। कहीं न कहीं इन हालात के लिए हम भी दोषी हैं। हमने 15 अगस्त ओर 26 जनवरी को राष्ट्रभक्ति के गीत बजाये और इसे अवकाश के रूप में मनाने तक सीमित कर दिया। हमें देश की नहीं, बल्कि अपनी चिंता रही। हमारी इसी सोच को नंगा करते हुए उर्मिलेश लिखते भी हैं :-
आज बस्ती में उठा है जो धुआं उठता रहे,
आग किसके घर लगी पढ़ लेंगे कल अखबार में।

वास्तव में किसी भी लोकतंत्र की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उसके नागरिक अपने अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों का किस जिम्मेदारी से निर्वहन करते हैं। अपनी सुविधाओं के लिए जब हम कायदे-कानून तोड़ते हैं तो दूसरे के अधिकारों का अतिक्रमण करते हैं। आज देश में जो भ्रष्टाचार का राग अलापते हैं, उसके मूल में कहीं न कहीं हम भी जिम्मेदार हैं। हमने चुनाव व्यवस्था को इतना खर्चीला बना दिया है कि चुनाव लडऩा करोड़पतियों का खेल बन गया है। यही वजह है कि देश की संसद में तीन सौ से अधिक करोड़पति बैठे हैं। एक ईमानदार, जिम्मेदार व साधारण पृष्ठभूमि का व्यक्ति संसद तो क्या ग्राम प्रधान का चुनाव नहीं लड़ सकता। इसके लिए किसी हद तक हम भी जिम्मेदार हैं। समाज में मानवीय मूल्यों का पतन भी एक अहम कारण है कि सामाजिक विद्रूपताएं उफान पर हैं जो राजनीतिक विद्रूपताओं को जन्म देती हैं। वास्तव में व्यवस्था परिवर्तन की आग हमारे दिलों में उठनी चाहिए। जैसा कि कवि लिखता भी है :-
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
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