दिल्ली की सड़कें
दिल्ली की सड़कों पर कुमकुमपिचकारी से
छिड़क रही है
उड़ती धूल
मैंने सोचा परी लोक से
लोकतंत्र पर
गिरा रहा है
कोई फूल
पहिये पैदल भाग रहे हैं
आटो लादे
टैम्पो ढोते
भौतिक भार
पड़ा सफाई का अधकचरा
जोड़ रहा है
चुपके-चुपके
मन से तार
साँस सड़क पर आटा माँड़े
चूँ-चूँ चें-चें
फिरकी बेंचें
प्यासी हूल
छत के ऊपर आग बिछाता
सूरज गोरा
कोरी-कोरी
कड़की धूप
शारीरिक श्रम पोंछे पानी
मटियाठस है
सावन-सावन
बौना कूप
घोंट रही है हवा दवाई
बिजली रानी
आती-जाती
क्यों दें तूल
बबूल के काँटे
क्या जनवाद उतर आया हैआंगन.आंगन गाँवों में
क्या बबूल के काँटे चुभते
नहीं किसी के पाँवों में
छायापथ के स्वर्णिम रथ पर
छायावादी गीत चढ़े
एक अनोखे तालमेल की
ओर नये संगीत बढ़े
फागुन की मस्ती बसती क्या
अब पीपल की छाँवों में
मानववादी हर उत्तम पथ
अभी न आये राहों पर
खुशियों के सतरंगी बचपन
झूल रहे है बाहों पर
सावन क्या अब भी जाता है
चढ़ निवेश की नावों में
आया कहाँ विकास सुहाना
आँगन.आँगन खोली में
शंका की दुलहन बैठी है
आश्वासन की डोली में
क्या वसंत अब नहीं बैठता
मधुशाला के ठाँवों में
-शिवानन्द सिंह 'सहयोगी', मेरठ
No comments:
Post a Comment