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विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Saturday, September 19, 2015

शिवानन्द सहयोगी के गीत

दिल्ली की सड़कें

दिल्ली की सड़कों पर कुमकुम
पिचकारी से
छिड़क रही है
उड़ती धूल
मैंने सोचा परी लोक से
लोकतंत्र पर
गिरा रहा है
कोई फूल

पहिये पैदल भाग रहे हैं
आटो लादे
टैम्पो ढोते
भौतिक भार
पड़ा सफाई का अधकचरा
जोड़ रहा है
चुपके-चुपके
मन से तार
साँस सड़क पर आटा माँड़े
चूँ-चूँ चें-चें
फिरकी बेंचें
प्यासी हूल

छत के ऊपर आग बिछाता
सूरज गोरा
कोरी-कोरी
कड़की धूप
शारीरिक श्रम पोंछे पानी
मटियाठस है
सावन-सावन
बौना कूप
घोंट रही है हवा दवाई
बिजली रानी
आती-जाती
क्यों दें तूल

बबूल के काँटे

क्या जनवाद उतर आया है
आंगन.आंगन गाँवों में
क्या बबूल के काँटे चुभते
नहीं किसी के पाँवों में

छायापथ के स्वर्णिम रथ पर
छायावादी गीत चढ़े
एक अनोखे तालमेल की
ओर नये संगीत बढ़े
फागुन की मस्ती बसती क्या
अब पीपल की छाँवों में

मानववादी हर उत्तम पथ
अभी न आये राहों पर
खुशियों के सतरंगी बचपन
झूल रहे है बाहों पर
सावन क्या अब भी जाता है
चढ़ निवेश की नावों में

आया कहाँ विकास सुहाना
आँगन.आँगन खोली में
शंका की दुलहन बैठी है
आश्वासन की डोली में
क्या वसंत अब नहीं बैठता
मधुशाला के ठाँवों में
 
-शिवानन्द सिंह 'सहयोगी', मेरठ

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