उपरोक्त कथनी पर खरी
उतरती हैं ये ग़ज़लें। अपने कथ्य में विशेष हैं ये और विशेष हैं सम्प्रेषणीयता के
गुण में। बात सीधी-सी, पर घाव गहरा। है न कमाल! लुकाव-छुपाव में कुछ नहीं
रखा, भला लगे या बुरा, जो कहना सो डंके की चोट पर कहना। फिर निशाने के सामने राजा
हो या प्रजा, कोई फ़र्क नहीं पड़ता। इस आशय से वे लिखते हैं –
दिन को केवल दिन लिखना है हमको तो
कानों को पीड़ा देते हैं
सत्ता की खामियों की
पोल खोलना लेखनी का धर्म समझकर लिखा है –
सच बोला तो चुन देगी,
ग़ज़ल संख्या 10 में भावनात्मकता तथा यथार्थ के अनेकानेक बिम्ब रचे गए हैं। ग़ज़ल संख्या 11 पाठक को स्वयं को भी कसौटी पर कस कर देखने का आह्वान करती है –
एक दर बंद था, दूसरा था खुला,
युवावस्था के लिए यह
निष्कर्षात्मक टिप्पणी काबिलेगौर है –
निराशा में जब तक जवानी रहेगी।
एक अन्य कहन का
सौन्दर्य निहारिए –
सजा तय करेगी अदालत खुदा की
सामाजिक विसंगति पर
कटाक्ष देखिए –
घोड़ों पर पाबंदी है
प्रतीक, बिम्ब तथा
व्यंजना का अनूठा मेल प्रस्तुत करता शे’र है –
कंगूरों पर आँच न आई,
आधी आबादी के प्रति सामाजिक
रवैये के विषय में बहुत कुछ कहता है यह शे’र –
जिसके आँगन बेटी जन्मी
कन्या-भ्रूण हत्या के जिम्मेदार कारकों को कैसे बख्शा जा सकता है –
मार रहे ख़ुद अपनी बेटी
विडम्बना देखिए, जिस प्रेमी-युग्ल के प्यार के किस्से अमर हैं, आज उनके वंशज
प्यार के नाम पर रीते-थोथे हैं-
लैला-मजनूँ के वंशज भी,
जब नेता जी वादे भूल जायें तो वार पर वार करना जनता का कर्तव्य है-
भूल गए नेता जी वादे,
प्राकृतिक विपदा, उसके प्रभाव और लोगों के त्याग का प्रतिबिम्बन एक साथ सामने
आया है –
देश पर संकट पड़ा है लोग डर
कर जी रहे हैं
जनता की तंगहाली देखकर राजाजी का ऐशो-आराम खटकता है इसलिए लेखनी लिखने से नहीं
चूकती –
अच्छे दिन आएँ या जाएँ, कोई
फ़र्क़ नहीं पड़ता,
दुनिया में सम्पूर्ण कोई नहीं इसलिए अपनी भी पड़ताल करनी बनती है –
मौत सभी को आएगी
ऐतिहासिक सत्य बयाँ करती हैं ये पंक्तियाँ–
क़लमों के भी शीश कटे हैं
लेखकीय निर्भीकता से भी रू-ब-रू हो लेते हैं –
मुझको कोई खौफ नहीं,
रचनाकार रचना करे और जागरण की बात न करे, यह हो नहीं सकता। यह तथ्य इन ग़ज़लों पर भी लागू होता है –
मन को तू बीमार न कर।
ग़ज़ल के शिल्प-विधान से अनभिज्ञ हूँ इसलिए इस विषय में चुप रहना ही श्रेयस्कर समझती हूँ। हाँ, कथ्य से प्रभावित हो कर कहना चाहूँगी कि इन ग़ज़लों की यात्रा पर निकलेंगे तो पग-पग पर ऐसे डेरे मिलेंगे, जो कहेंगे – पल दो पल ठहर कर जाइए, हमारे पास सुच्चे मोती हैं। एक भी मोती नकली निकले तो जो चाहे सजा भुगतेंगे। बेहतर होता, उर्दू के कठिन-शब्दों के अर्थ पृष्ठ के अंत में दर्शा दिए जाते। त्रुटिरहित सुन्दर छपाई, स्तरीय क़ाग़ज और आकर्षक मुखपृष्ठ के होते यह ग़ज़ल संग्रह संग्रहणीय बन पड़ा है।
हार्दिक कामना है, रघुविन्द्र यादव की लेखनी,
रात को रात लिखती हुई, निर्बाध गति से चलती रहे।
लेखक – रघुविन्द्र यादव
प्रकाशक – श्वेतवर्णा प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ - 104, मूल्य – 175रु. (पेपरबैक)
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