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Thursday, May 4, 2023

कटु यथार्थ की बिम्बावली : आस का सूरज

    दोहा तथा कुंडलिया छंद के क्षेत्र में विशेष आवाजाही रखने वाले सशक्त हस्ताक्षर रघुविन्द्र यादव का पहला ग़ज़ल संग्रह है – आस का सूरज। इसमें सम्मिलित 91 ग़ज़लों के कथ्य का उम्दापन, किसी भी कोण से यह आभास नहीं होने देता कि यह पहला संग्रह है। अपनी बात के अन्तर्गत ग़ज़लकार ने लिखा है – जब आँचल परचम बन सकता है तो ग़ज़ल भी धारदार और सच कहने का औजार बन सकती है। हमारी ग़ज़लों में अंतिम व्यक्ति की बात, समाज के हालात, पूंजी के उत्पात और जाति-धर्म के नाम पर हो रहा रक्तपात ही प्रमुख मुद्दे हैं।

    उपरोक्त कथनी पर खरी उतरती हैं ये ग़ज़लें। अपने कथ्य में विशेष हैं ये और विशेष हैं सम्प्रेषणीयता के गुण में। बात सीधी-सी, पर घाव गहरा। है न कमाल! लुकाव-छुपाव में कुछ नहीं रखा, भला लगे या बुरा, जो कहना सो डंके की चोट पर कहना। फिर निशाने के सामने राजा हो या प्रजा, कोई फ़र्क नहीं पड़ता। इस आशय से वे लिखते हैं –

दिन को केवल दिन लिखना है हमको तो

जिनको सच कड़वा लगता है रूठेंगे।
***
बोझ ही कहते रहे समझा नहीं अपना
वोट जिनको थे दिए सरकार की खातिर।
            ***
बेच देगा मुल्क भी कल रहनुमा
दिख रहे हैं आज ही आसार से।

     दो राय नहीं कि सच्चाई सदा कड़वी होती है लेकिन जिस प्रकार मलेरिया के निवारणार्थ कड़वी कुनीन खा कर सुकून मिलता है, उसी प्रकार मिठास के मुहाने की तमन्ना है तो पहले कड़वाहट का पान करना ही होगा। सामाजिक-सांस्कृतिक विद्रूपता का बिम्ब देखिए –

कानों को पीड़ा देते हैं

बजते फूहड़ गीत कबीरा। 

सत्ता की खामियों की पोल खोलना लेखनी का धर्म समझकर लिखा है –

सच बोला तो चुन देगी,

सत्ता अब दीवारों में।
***
रहजन भी तो शामिल हैं
अपने चौकीदारों में। 

    ग़ज़ल संख्या 10 में भावनात्मकता तथा यथार्थ के अनेकानेक बिम्ब रचे गए हैं। ग़ज़ल संख्या 11 पाठक को स्वयं को भी कसौटी पर कस कर देखने का आह्वान करती है –

एक दर बंद था, दूसरा था खुला,

फैसला तुम करो, अब ख़ुदा कौन है?
      ***
आदमी दर्द से मर रहे रात-दिन,
देखते सब रहें, बाँटता कौन है? 

    युवावस्था के लिए यह निष्कर्षात्मक टिप्पणी काबिलेगौर है –

निराशा में जब तक जवानी रहेगी।

अधूरी सभी की कहानी रहेगी। 

        एक अन्य कहन का सौन्दर्य निहारिए –

सजा तय करेगी अदालत खुदा की

वहाँ पर तुम्हारी वज़ारत नहीं है। 

    सामाजिक विसंगति पर कटाक्ष देखिए –

घोड़ों पर पाबंदी है

खूब गधों को घास मिले। 

    प्रतीक, बिम्ब तथा व्यंजना का अनूठा मेल प्रस्तुत करता शेर है –

कंगूरों पर आँच न आई,

नींव के पत्थर हिले हुए हैं। 

    आधी आबादी के प्रति सामाजिक रवैये के विषय में बहुत कुछ कहता है यह शे’र –

जिसके आँगन बेटी जन्मी

वो पहरेदारी सीख गया। 

    कन्या-भ्रूण हत्या के जिम्मेदार कारकों को कैसे बख्शा जा सकता है –

मार रहे ख़ुद अपनी बेटी

दें किसको इल्ज़ाम कबीरा। 

    विडम्बना देखिए, जिस प्रेमी-युग्ल के प्यार के किस्से अमर हैं, आज उनके वंशज प्यार के नाम पर रीते-थोथे हैं-

लैला-मजनूँ के वंशज भी,

दो दिन करते प्यार कबीरा। 

    जब नेता जी वादे भूल जायें तो वार पर वार करना जनता का कर्तव्य है-

भूल गए नेता जी वादे,

करने होंगे वार कबीरा। 

    प्राकृतिक विपदा, उसके प्रभाव और लोगों के त्याग का प्रतिबिम्बन एक साथ सामने आया है –

देश पर संकट पड़ा है लोग डर कर जी रहे हैं

जान की बाजी लगा कोई दवाएँ दे रहा है। 

    जनता की तंगहाली देखकर राजाजी का ऐशो-आराम खटकता है इसलिए लेखनी लिखने से नहीं चूकती –

अच्छे दिन आएँ या जाएँ, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता,

हम तो मरने को जन्में हैं, आप अमर हैं राजाजी। 

    दुनिया में सम्पूर्ण कोई नहीं इसलिए अपनी भी पड़ताल करनी बनती है –

मौत सभी को आएगी

निज कर्मों का ख़्याल करें। 

    ऐतिहासिक सत्य बयाँ करती हैं ये पंक्तियाँ–

क़लमों के भी शीश कटे हैं

जब-जब तीखी धार हुई है। 

    लेखकीय निर्भीकता से भी रू-ब-रू हो लेते हैं – 

मुझको कोई खौफ नहीं,

उसकी नेक नज़र में हूँ। 

    रचनाकार रचना करे और जागरण की बात न करे, यह हो नहीं सकता। यह तथ्य इन ग़ज़लों पर भी लागू होता है – 

मन को तू बीमार न कर।

हार कभी स्वीकार न कर।
      ***
बेटों को भी देने होंगे
कुछ अच्छे संस्कार कबीरा।
      ***
जो लोगों को राह दिखाए
लिख ऐसा नवगीत कबीरा। 

    ग़ज़ल के शिल्प-विधान से अनभिज्ञ हूँ इसलिए इस विषय में चुप रहना ही श्रेयस्कर समझती हूँ। हाँ, कथ्य से प्रभावित हो कर कहना चाहूँगी कि इन ग़ज़लों की यात्रा पर निकलेंगे तो पग-पग पर ऐसे डेरे मिलेंगे, जो कहेंगे – पल दो पल ठहर कर जाइए, हमारे पास सुच्चे मोती हैं। एक भी मोती नकली निकले तो जो चाहे सजा भुगतेंगे। बेहतर होता, उर्दू के कठिन-शब्दों के अर्थ पृष्ठ के अंत में दर्शा दिए जाते। त्रुटिरहित सुन्दर छपाई, स्तरीय क़ाग़ज और आकर्षक मुखपृष्ठ के होते यह ग़ज़ल संग्रह संग्रहणीय बन पड़ा है। 

    हार्दिक कामना है, रघुविन्द्र यादव की लेखनी, रात को रात लिखती हुई, निर्बाध गति से चलती रहे।

-कृष्णलता यादव
677, सेक्टर 10ए
गुरुग्राम 122001
पुस्तक –आस का सूरज 
लेखक – रघुविन्द्र यादव  
प्रकाशक – श्वेतवर्णा प्रकाशन, दिल्ली 
पृष्ठ  - 104, मूल्य – 175रु. (पेपरबैक)                                        

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