विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Sunday, November 8, 2015

बाल कविता - आई दीवाली

दीप जलाओ, दीप जलाओ।
आई दीवाली, खुशी मनाओं।।

झिल मिल-झिल मिल दीप जले,
चकरी, फिरकी, फुलझड़ी चले,
आतिशबाजी से नभ रंगीन हुआ,
घर-घर आंगन में लड़ी जले।
अनार, बम, पटाखें खूब चलाओं।।

हिंदु, मुस्लिम, सिख, इसाई,
मिलकर नफरत की पाटो खाई,
इक-दूजे के गले मिलो तुम,
आपस में तुम हो भाई-भाई।
मिल जुल कर ये पर्व मनाओ।।

अब की ऐसी आए दीवाली,
घर-घर में छाए खुशहाली,
हर आंगन में नाचे खुशियां,
खेतों में छाए हरियाली।
खुशियों के तुम दीप जलाओ।।

-भूप सिंह ‘भारती’

गाँव व डाक -खालेटा
जिला - रेवाड़ी, हरियाणा- 123103
मो0 - 094162-37425


Thursday, September 24, 2015

बुत में न मैं आयत में हूँ - अहमना भारद्वाज 'मनोहर'

बुत में न मैं आयत में हूँ न आरती न अज़ान में, 
मजबूर की आह में हूँ, मासूम की मुस्कान में।
आये थे मिलने मुझे कब तुम मेरे आवास में,
ढूँढ़ा मुझे तुमने कभी काबा कभी कैलाश में,
मैं बरकतें बरसा रहा हूँ खेत में, खलिहान में,
बुत में न मैं आयत में हूँ न आरती न अज़ान में।
मैंने तो हर इंसान में बख्शा खुदाई नूर है,
तुमने लिखे अपने लिए मज़हबी दस्तूर हैं,         
ये $फर्क तुमने ही किया गीता और कुरान में,          
बुत में न आयत में हूँ न आरती न अज़ान में।  
मैंने कहा कब आपसे मुझको चढ़ावा चाहिए,
ये भी न चाहा मंदिरों में धूप दीप जलाइए,
इतना ही चाहा आपसे, न खोट हो ईमान में,
बुत में न आयत में हूँ न आरती न अज़ान में।
लडऩे लगे आपस में क्यूँ, मैं आपसे नाराज़ हूँ,       
मैं न किसी मंदिर न मस्जि़द के लिए मोहताज हूँ,                 
मुझे कैद करना चाहते क्यूँ तंग बंद मकान में,      
बुत में न आयत में हूँ न आरती न अज़ान में।
 
-अहमना भारद्वाज 'मनोहर'
रेवाड़ी (हरियाणा)

Monday, September 21, 2015

डॉ. लोक सेतिया की दो कवितायेँ

    चुभन

धरती ने अंकुरित किया
बड़े प्यार से उसे
किया प्रस्फुटित
अपना सीना चीर कर
बन गया धीरे-धीरे
हरा भरा इक पौधा
उस नन्हे बीज से।
फसल पकने पर
ले गया काट कर
बन कर स्वामी
डाला था जिसने
बीज धरती में
और धरती को मिलीं
मात्र कुछ जड़ें
चुभती हुई सी।
अपनी कोख में
हर संतान को पाला
माँ ने मगर, मिला उनको
पिता का ही नाम, जो
समझता रहा खुद को
परिवार का मुखिया
और घर का मालिक।
और हर माँ सहती रही
कटी हुई जड़ों की
चुभन का दर्द
जीवन पर्यन्त।   

         औरत

तुमने देखा है
मेरी आँखों को
मेरे होंठों को
मेरी ज़ुल्$फों को।
नज़र आती है तुम्हें,
खूबसूरती, नज़ाकत और कशिश,
मेरे जिस्म के अंग-अंग में।
देखा है तुमने,
केवल बदन मेरा,
बुझाने को प्यास,
अपनी हवस की।
बाँट दिया है तुमने,
टुकड़ों में मुझे,
और दे रहे हो उसको,
अपनी चाहत का नाम।
तुमने देखा ही नहीं,
उस शख्स को,
जो एक इंसान है,
तुम्हारी ही तरह,
जीवन का एहसास लिये,
जो नहीं है , केवल एक जिस्म,
औरत है तो क्या।

 -डॉ. लोक सेतिया

सेतिया अस्पताल,
मॉडल टाउन, फतेहाबाद
(हरियाणा)-125050
Note- उक्त रचनाएँ इस लिंक पर बाबूजी का भारतमित्र में भी पढ़ी जा सकती हैं 


https://www.scribd.com/doc/281369216/Babuji-Ka-Bharatmitra-Sept-15

Saturday, September 19, 2015

शिवानन्द सहयोगी के गीत

दिल्ली की सड़कें

दिल्ली की सड़कों पर कुमकुम
पिचकारी से
छिड़क रही है
उड़ती धूल
मैंने सोचा परी लोक से
लोकतंत्र पर
गिरा रहा है
कोई फूल

पहिये पैदल भाग रहे हैं
आटो लादे
टैम्पो ढोते
भौतिक भार
पड़ा सफाई का अधकचरा
जोड़ रहा है
चुपके-चुपके
मन से तार
साँस सड़क पर आटा माँड़े
चूँ-चूँ चें-चें
फिरकी बेंचें
प्यासी हूल

छत के ऊपर आग बिछाता
सूरज गोरा
कोरी-कोरी
कड़की धूप
शारीरिक श्रम पोंछे पानी
मटियाठस है
सावन-सावन
बौना कूप
घोंट रही है हवा दवाई
बिजली रानी
आती-जाती
क्यों दें तूल

बबूल के काँटे

क्या जनवाद उतर आया है
आंगन.आंगन गाँवों में
क्या बबूल के काँटे चुभते
नहीं किसी के पाँवों में

छायापथ के स्वर्णिम रथ पर
छायावादी गीत चढ़े
एक अनोखे तालमेल की
ओर नये संगीत बढ़े
फागुन की मस्ती बसती क्या
अब पीपल की छाँवों में

मानववादी हर उत्तम पथ
अभी न आये राहों पर
खुशियों के सतरंगी बचपन
झूल रहे है बाहों पर
सावन क्या अब भी जाता है
चढ़ निवेश की नावों में

आया कहाँ विकास सुहाना
आँगन.आँगन खोली में
शंका की दुलहन बैठी है
आश्वासन की डोली में
क्या वसंत अब नहीं बैठता
मधुशाला के ठाँवों में
 
-शिवानन्द सिंह 'सहयोगी', मेरठ

Tuesday, September 8, 2015

हस्ताक्षर

पर्वत पठार नदियाँ
उस ईश के हस्ताक्षर।
जल वायु पुष्प ऋतुयें
उसको करें उजागर।।
इस सृष्टि के हर कण में
वह छिप के है समाया।
पत्थर और जल कमल में
उसका ही रूप छाया।।
पक्षी जो करते कलरव
उड़ते हुए गगन में।
तारे जो टिम टिमाते
खुशबू है जो पवन में।।
सागर में लहरें उठकर
जो तट की ओर आती।
उस विश्व चेतना की
धडक़न को ही सुनाती।।
रवि, चन्द्रमा, दिशायें
यह अखिल विश्व सारा।
सब कारणों का कारक
वह ईश सबसे न्यारा।।
तूफान उत्तराखंड का
हमने अभी जो देखा।
मानव के प्रकृति-दोहन पर
खिच गई सीमा-रेखा।।
इस प्रकृति के हस्ताक्षर को
रखें स्मृति-पटल पर।
हम प्रकृति को न छेड़ें
निज स्वार्थ के पहल पर।।
-प्रो. बसन्ता
सरदार वल्लभ भाई पटेल महाविद्यालय, भभुआ
(कैमूर) बिहार-821101