विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Saturday, March 12, 2016

बेगराज कलवांसिया के दोहे

चमचों का होता रहा, सदियों से सम्मान।
दबी नींव की ईंट पर, नही किसी का ध्यान।।

मुकिश्ल में हर आदमी, जाए किसके पास।
सपना बनकर रह गई, अच्छे दिन की आस।।

पैसे लेकर बेचते, अपना पावन वोट।
वही निकालें बाद में, लोकतंत्र में खोट।।

बिना गरज संसार में, कौन पकड़ता हाथ।
सूखे पेड़ों का सदा, पात छोड़ते साथ।। 

बाबाओं के ढोंग से, देश हुआ बदनाम।
संतों के छल भेष में, बैठे हैं शैतान।।

बार-बार होने लगे, निर्मम नरसंहार।
खूनी होली खेलते, आतंकी हर बार।।

शीतलहर के कहर से, लगा ठिठुरने गात।
दिन कटना मुश्किल हुआ, लम्बी लगती रात।।

पढ़े लिखे इन्सान भी, करते औछी बात।
परिचय में भी पूछते, दीन, धर्म औ जात।।

चिंता में डूबे पड़े, छोटे-बड़े किसान।
मंडी में बिकता नहीं, सोने जैसा धान।। 

-बेगराज कलवांसिया, ढूकड़ा 


Wednesday, March 9, 2016

दोहा छंद - चन्द्रसेन विराट

दस्तक दी जब प्रेम ने, खुला हृदय का द्वार।
पिछले दरवाजे अहम्, भागा खोल किवाड़।।

जो मेरा वह आपका, निर्णय हो अभिराम।
मिले हमारे प्रणय को, शुभ परिणय का नाम।।

कोई पूछे, क्या कहें? क्या है उसका राज।
अपना परिचय प्रणय तक, कैसे पहुँचा आज।।

तन करता इकरार पर, मन करता इनकार।
देहाकर्षण उम्र का, वह कब सच्चा प्यार।।

देह रूप या रंग में, किसको कह दूँ अग्र।
सच तो यह है, तुम मुझे , सुन्दर लगी समग्र।।

अलग थलग होकर रहे, खुद को लिया समेट।
किंतु तुम्हारी नज़र ने, हमको लिया लपेट।।

तुमने बत्ती दी बुझा, जब हम हुए समीप।
लगा देव की नायिका, बुझा रही हो दीप।।

भरा रहा है प्रेम से , सतत आयु का कोष।
उससे मिली जिजीविषा, जीने का संतोष।।

जो भी है सौन्दर्य का, उच्च नया सोपान।
आज वहाँ तुम हो मगर, कोई नहीं गुमान।।

उथली भावुकता भरा, सुख सपनों का ज्वार।
देहाकर्षण है महज, कच्ची वय का प्यार।।

सही विषय संदर्भ में, सारे दृश्य सुशील।
रहता दर्शक दृष्टि में, श्लील या कि अश्लील।।

सुन तो लेते हैं उन्हें, लोग न करते गौर।
जिनकी कथनी और है, लेकिन करनी और।।

कभी बड़प्पन की कहीं, रही नहीं जागीर।
तुमको यदि होना बड़ा, खींचो बड़ी लकीर।।

गिनते हैं जब नोट सब, धन-अर्जन की होड़।
ऐसे मे कवि कर रहा, मात्राओं का जोड़।।

देर लगेगी धैर्य रख, छू पायेगा मर्म।
आते-आते आयेगा, यह कविता का कर्म।।

भाषा, शैली, कथ्य का, हो विशिष्ट अवदान।
इनका सम्यक मेल ही, है कवि की पहचान।।

प्रज्ञा के आलोक में, हुआ प्रेम-संबंध।
जीवन भर टूटा नहीं, देता रहा सुगन्ध।।

परिभाषाएँ लाख दें, पाप पुण्य की आप।
मन माने तो पुण्य है, मन माने तो पाप।।

आधी रोटी देस की, थी तो मान समेत।
पूरी है परदेस में, मगर ग्लानि की रेत।।

बेटी बेल अंगूर की, कुछ बरसों में दक्ष।
बेटा पौधा आम का, दशकों में हो वृक्ष।।

देता ताप, प्रकाश भी, ज्यों नभ का आदित्य।
त्यों साधे सत-हित वही, होता है साहित्य।।

-चन्द्रसेन विराट

121, बैकुंठ धाम कॉलोनी, इन्दौर

शशिकांत गीते के दोहा छंद

अपना सब कुछ आज जो, कल जाएगा डूब।
प्यासा पानी से मरे, ये किस्सा भी खूब।।

उस मेधा का क्या हुआ, जिसने खोजी आग।
जाने क्यों मद्धिम हुआ, सप्त सुरों का राग।।

कैसा रोना-पीटना, कैसा हाहाकार।
नई सदी की नींव के, तुम हो पत्थर यार।।

सडक़ें ही क्या जिन्दगी, अपनी खस्ता हाल।
पानी, बिजली, भूख के, थक कर चूर सवाल।

जंगल चोरी हो रहे, नदियाँ अपहृत ईश।
रजधानी में जम गये, दल-बल सहित कपीश।

घाटी में रहना यहाँ, घट्टी में ज्यों बीज।
घुन बेचारा पिस रहा, नहीं पास तजबीज।।

बड़ा कठिन है तैरना, धारा के विपरीत।
कूड़ा बहता धार में, तू धारा को जीत।।

चीजें क्या, जीवन यहाँ, नहीं रह गया शुद्ध।
भ्रमित, अबोधी, मोह में, बने घूमते बुद्ध।।

सोन चिरैया दाब कर, खूनी पंजों बाज।
अंधकार के देश को, उड़ता बेआवाज।।

जो कहते थकते नहीं, चलना सीखो साथ ।
मौका आते ही वही, पहले छोड़ें हाथ।।

जीवन के हर युद्ध में, वे ही रहते खेत।
अलग अलग जीवन जियें, भले रहें समवेत।।

गहरा सागर, आसमाँ, हिमगिरि- सा तू दीख।
पर मन रखना काँच-सा, नदियों से भी सीख।

राखी धागा सूत का, पक्का जैसे तार।
पावनता निस्सीम है, दुनिया भर का प्यार।।

घड़ी देख कर ताकती, बहना अपलक द्वार।
भैया चाहे व्यस्त हों, आएँगे इस बार।।

जात-पात, छोटा-बड़ा, नहीं धरम अरु नेम।
सिखा हुमायूँ भी गया, बहन-भ्रात का प्रेम।।

बहना प्यारी मित्र है, है माँ का प्रतिरूप।
गरमी में छाया घनी, सरदी में है धूप।।

अंग्रेजों से हो गये, आखिर हम आजाद।
लेकिन गर्वित घूमते, अंग्रेजी सिर लाद।।

अंग्रेजी में देखते, जो अपना उत्थान।
पूरा सच ये जान लें, निश्चित है अवसान।।

सागर चरण पखारता, हिमगिरि मुकुट विशाल
हिन्दी से दैदिप्य है, भारत माँ का भाल

भिन्न धर्म औ जातियाँ, भाषा-भाव अनेक
एक सूत्र में बाँध कर, हिन्दी करती एक

सच्चे मन से कर रहा, हूँ मैं यह आह्वान
अब हिन्दी का कीजिये, माँ-सा ही सम्मान।

- शशिकांत गीते

डॉ.देवेन्द्र आर्य के दोहे

ठहर अरी ओ जि़न्दगी, देख जगत के रंग।
दुख अब तक जीता नहीं, मैं हारा कब जंग।।

दुख आपद में नेह के, दृढ़ होते संबंध।
तेज हवा में फूल की, फैले अधिक सुगन्ध।।

सब कुछ अर्पण कर उसे, भूख प्यास दिन रात।
पतझर में खिलने लगें, सौ वसंत के पात।।

अनजाने से हो गए, ये कैसे संबंध।
सूने घर में रम गई, मदिर-मदिर सी गंध।।

ॅऊपर-ऊपर सहज सब, भीतर-भीतर खार।
बाज़ारों में आ गए, नये-नये हथियार।।

होली में जल तो गई, मैं, हम, जन की पीर।
उजली चादर पर लिखे, आखर नेह कबीर।।

पंख दिए, मन हौसला, ऊँची भरो उड़ान।
संघर्षों का यह सफर, लिए खड़ा मुस्कान।।

प्रेम, प्यार, पनघट, मिलन, पींग सजी मनुहार।
चकित बटोही सोचता, अब सब हैं बाज़ार।।

सुधि से मैं करने लगा, मन-गुन की कुछ बात।
बूँद-बूँद दुख यूँ रिसा, ज्यों बेबस बरसात।।

जीवन हर पल जीत है, जीवन है विश्वास।
गिरकर भी सौ बार ज्यों, फिर चढऩे की प्यास।

दे न सका री जि़न्दगी, तुझे प्यार-सम्मान।
निपट कलेशों में कटे, अथ-इति के सोपान।।

नामुमकिन कुछ भी नही,बाँध चले जो काल।
वामन ने नापे यहाँ, नभ, धरती, पाताल।।

मिलकर चले कि उठ गया, गोवर्धन का भार।
घनन-घनन कर इन्द्र का, गया अहं सौ बार।।

गहरा पर शाश्वत नहीं, यह वैरी अँधियार।
मन का सूरज तो उठा, चलो क्षितिज के पार।।

जब से दो दो हाथ कर, लिखा नियति का भाल।
आपद् लौटी द्वार से, दुर्दिन हुए सुकाल।।

माँ अभाव में, भाव में, बनकर रही अनूप।
आँगन भर छाई रही, ज्यों अगहन की धूप।।

घोर कुहासा विनद् में, माँ ज्यो उजली भोर।
सोचेगा सौ बार दुख, आने पर इस ओर।।

माँ तो आशीर्वाद की, बहती निर्मल गंग।
सगर सुतों सा तारती, भर ममता के रंग।।

बेशक बैठ बज़ार में, निरखो उजली धूप।
माँ जैसी ममता कहाँ, माँ जैसा प्रतिरूप।।

क्षण कहते उसके सिवा, किसने थामा हाथ।
अपने भी दुख में गए, छोड़-छोडक़र साथ।।

तोड़ श्रंखला, युग बदल, नभ तक नहीं पड़ाव।
घर-घर यूँ जलता रहे, सूरजमुखी अलाव।।

-डॉ.देवेन्द्र आर्य

डॉ अजय जनमेजय के दोहे

खूब पता है साथ है, यादों वाला काँच।
फिर भी मृग मन का भरे, चलते हुए कुलाँच।।

क्या क्या बोलूँ रौनकें, क्या क्या बोलूँ रंग।
बरसे छत पर चाँदनी, होते हो जब संग।।

रेखाएं ये भाग्य की, लायीं कैसी साथ।
नन्हीं जान हथेलियाँ, छान रहीं फुटपाथ ।।

बिना तुम्हारे नींद कब, बिना नींद कब चैन।
इक सपना भीगा किया, फँसकर गीले नैन।।

जिनको मैं देखा किया, कल तक आँखें मूँद।
बिन तेरे उन चित्र पर, जमने लगी फफूँद।।

हमीं सुनाने लग गए, बदल-बदल कर तथ्य।
जुटा न पाए हौसला, कह सकते थे सत्य।।

तुम बिन जब तनहा रहा, तब-तब मेरे द्वार।
आंधी आयी पीर की, लेकर गर्द-गुबार।।

चहरे पर बढऩे लगीं, चिन्ताओं की रेख।
खुद में बनकर आइना, क्या पाया है देख।।

चुप्पी का पुल बीच में, हम दोनों दो छोर।
ऊपर से खामोश थे, अन्दर अन्दर शोर।।

तुमने फिर लिख भेज दी, ना आने की बात।
उम्मीदें फिर-फिर हुईं, तीन ढ़ाक के पात।।

वो जो मेरी जान था, थी उससे ही जंग।
असमंजस में चाँद था, छत पर मेरे संग।।

तन देकर उसने हमें, देदी पूँजी साँस।
द्वेष, मोह की कील खुद, हमने रक्खी फाँस।।

करनी कथनी से हुए, हम खुद ही नापाक।
उसने तो जीवन दिया, पाक और शफ्फाक।।

ओरों को तकलीफ दे, रहा कौन आबाद।
पहले सूरज खुद तपा, तपी धरा फिर बाद।।

जब-जब देखूँ आइना, दिखे न अपना रूप।
ये मैं कैसी डाह में, जलकर हुआ कुरूप।।

सहलाया दुख को सुनी, दुख की जब हर बात।
पता चला सुख ने उसे, दिए बहुत आघात।।

आओगे तुम तय हुआ, कर के देर सबेर।
सौन चिरैया फिर दिखी, मन की आज मुंडेर।।

साँस-साँस सोचा यही, आओगे इस बार।
खामोशी बुनती रही, जाले मन के द्वार।।

शब्द हमारी सोच को, देते सच्चे अर्थ।
बंटकर साँचों में किया, हमने अर्थ अनर्थ।।

शब्द सारथी तो सदा, रहे हमारी गैल।
पर सोचों का दायरा, ज्यों कोल्हू का बैल।।

मेरे खुद के हाथ में, थी मैं की बंदूक।
तड़पा जब आई समझ, क्या थी मन की हूक।।

-डॉ अजय जनमेजय

417 रामबाग कालोनी
सिविल -लाइन्स ,बिजनौर 246701

Monday, March 7, 2016

राजेश जैन राही के दोहे

प्रीत उसी से कीजिए, जिसके भीतर भाव।
आखिर खंजर से मिले, फूलों को फिर घाव।।

नफरत ने खारिज किए, प्रीत भरे प्रस्ताव।
बातों से बदले नहीं, विषधर का बर्ताव।।
 
खींचो तीर कमान पर, लो गीता से सीख।
नहीं वीर को शोभती, संकट में भी भीख।।
 
सूरज की पेशी हुई, मावस का दरबार।
अँधियारा मुस्का रहा, उजियारा लाचार।।
 
सूरज को भाने लगा, रातों का सत्कार।
शेरों पे पहरा लगा, हू हू करे सियार।।
 
हार गए गिरगिट सभी, हारे सभी सियार।
राजनीति के पास था, रंगो का भंडार।।
 
संकट सीधे पे रहे, क्या तरूवर क्या लोग।
हंस करे है चाकरी, लम्पट सत्ता भोग।।
 
नहीं कसौटी काम की, नहीं न्याय आधार।
परिभाषित है सत्य अब, मतलब के अनुसार।।

आखिर खंजर से हुए, जख्मी देखो हाथ।
बांटे होते फूल तो, खुश्बू रहती साथ।।
 
जुमलों में अटके हुए, जनता के अरमान।
संकट कभी किसान पर, आहत कभी जवान।।

-राजेश जैन 'राही'

रायपुर (छत्तीसगढ़)

Friday, March 4, 2016

हमीद कानपुरी की ग़ज़ल

रोज़ो शब मत सता ज़िन्दगी
अब न अहसां जता ज़िन्दगी

लाज इसकी रखो हर तरह
रब ने की है अता ज़िन्दगी

खेल तेरा बहुत हो चुका
कर न अब तू कहता ज़िन्दगी

कुछ समझ में नहीं आ रहा
क्यों बताती धता ज़िन्दगी

यार मेरा जहाँ आज दिन
ढूंढ ला वो पता ज़िन्दगी

लक्ष्य को भेदकर के दिखा
तीर मत कर खता ज़िन्दगी||

-हमीद कानपुरी 

(अब्दुल हमीद इदरीसी)

Monday, February 15, 2016

पीयूष कुमार द्विवेदी 'पूतू' के दोहे

नमन करें माँ शारदे, करिए ज्ञान प्रदान।
हो जाए तेरी कृपा, जीवन हो वरदान॥1॥ 

हँसवाहिनी शारदे, वेदों में  है वास।
हम सब करते प्रार्थना, भरिए हृदय प्रकाश॥2॥ 

माता वीणावादिनी, तुमसे है संगीत।
छंद-छंद में हो बसी, और सरस हो गीत॥3॥ 

जग जननी माँ शारदे, महिमा अपरंपार।
मानव की तो बात क्या, देव न पाएँ पार॥4॥ 

अज्ञानी पाकर दया, हो जाए विद्वान।
उसको इस संसार में, मिले बड़ा सम्मान॥5॥ 

पूजन तेरा हम करें, भक्ति भाव के साथ।
चाहें अपने शीश पर, ममता वाला हाथ॥6॥ 

हे माता! वागेश्वरी, वाणी का दो दान।
सकल जगत में आपका, करूँ सदा यशगान॥7॥ 

माता हो ममतामयी, बालक सभी अबोध।
पूजन सब स्वीकार लो, बिना किसी अवरोध॥8॥

क्षमा करो माँ भूल सब, करो कृपा बरसात।
मैं दोहोँ में कह गया, अपने मन की बात॥9॥ 

शब्द सुमन अर्पित करूँ, मातु करो स्वीकार।
कलम सदा लिखती रहे, महिमा बड़ी अपार॥10॥

-पीयूष कुमार द्विवेदी 'पूतू'

Friday, February 5, 2016

कुँवर कुसुमेश के दोहे

प्रासंगिक हैं आज भी, कल से अधिक कबीर

अमिट लेख बनती गई, संतों की तहरीर।
प्रासंगिक हैं आज भी, कल से अधिक कबीर।।

मायावी रावण कहाँ, जलकर हुआ है राख।
ज़िंदा है इंसान में, अब भी वो गुस्ताख़।।

जिसने जीवन भर किये, जुर्म बड़े संगीन।
ऐसे भी कुछ हो गये, कुर्सी पर आसीन।।

किस मुँह से करने चले, आज़ादी की बात।
अभिनय में नेता करे, अभिनेता को मात।।

बुद्धिजीवियों की यहाँ, सांसत में है जान।
चोर, उचक्के, माफिया, फिरते सीना तान।।

कुछ नेता कुछ माफिया, कर बैठे गठजोड़।
धीरे-धीरे देश की, गर्दन रहे मरोड़।।

अपराधों में लिप्त हैं, नाम सच्चिदानन्द।
टाटों में दिखने लगे, रेशम के पैबंद।।

उस रावण को बेवजह, कोस रहे हैं आप।
अब के रावण लग रहे, उस रावण के बाप।।

युवक-युवतियां आजकल, दिल में लिए उमंग।
चढ़ा रहे हैं प्रेम पर, पाश्चात्य का रंग।।

डॉलर की कीमत बढ़ी, रुपया गिरा धड़ाम।
विषम परिस्थिति हो गई, क्या होगा हे राम।।

कमर तोड़ती जा रही, मँहगाई की मार।
दिन पर दिन छूने लगा, आसमान बाजार।।

उल्टी पुल्टी हो गई, इस दुनिया की रीत।
कहने को भयमुक्त पर, हर कोई भयभीत।।

बेहिसाब बढ़ने लगा, आबादी का ग्राफ।
आखिर होगा किस तरह, सबके संग इन्साफ।।

जितनी मंहगाई बढ़ी, उतना बढ़ा दहेज़।
चीख चीख कर कह रहे, सारे दस्तावेज़।।

फुटपाथों पर सो रहे, लाखों भूखे पेट।
क़िस्मत करने पर तुली, इनका मटियामेट||

सच्चाई फुटपाथ पर, बैठी लहूलुहान।
झूठ निरंतर बढ़ रहा, निर्भय सीना तान।।

सच पर चलने की हमें, हिम्मत दे अल्लाह।
काँटों से भरपूर है, सच्चाई की राह।।

-कुँवर कुसुमेश
4/738 विकास नगर, लखनऊ-226022
मोबा:09415518546

Sunday, January 31, 2016

कैलाश झा ‘किंकर’ के दोहे



आँखों से मोती झड़े, देख-देख बाज़ार|
खेल-खिलौनों पर पड़ी, महँगाई की मार।।

आँखों में सपने बहुत, हों कैसे साकार।
घूम-घूम कर बेचता, बचपन अब अखबार।।

चाँद और इस प्रेम में, इक जैसा व्याघात।
बढ़ना जब-जब छोड़ दे, घटने की ही बात।।

भक्ति भाव बिन प्रेम के, उपजे नहीं सुजान।
भक्ति प्रेम विस्तार है, जाने सकल जहान।।

जितने हम विकसित हुए, उतने हुए अधीर।
औरों के हक छीनकर, बनने चले अमीर।।

कैसे-कैसे लोग हैं, कैसी कैसी बात।
कोई निशि को दिन कहे, कोई दिन को रात।।

अन्धकार में जी रही, अन्धकार-सी आस|
उल्लू जैसी जिन्दगी, दिन में लगे उदास।।

लगता है अब सत्य का, गया जमाना बीत।
परिवर्तन यह विश्व का, लगता आशातीत।।

किंकरये सब क्या हुआ, भूल गए संदेश।
अब भी छोड़ो स्वार्थ को, देश बचाओ देश।।

करने वाला और है, श्रेय लूटता और।
बगुला ही बनता सखे, जन-गण का सिरमौर||

बेकसूर पर लग रहा, बेमतलब अभियोग।
टूट रही है मान्यता, बदल रहे हैं लोग।।

ज्ञान बिना कोई नहीं, पाता सुख औ’ प्यार।
दृष्टिहीन के सामने, दर्पण भी बेकार।।

हिन्दी के सिरमौर को, हिन्दी से तकरार।
पढ़ते और पढ़ा रहे, अंग्रेजी अखबार।।

मना रहा हिन्दी दिवस, वर्षों से यह देश।
अंग्रेजी में पत्र लिख, भिजवाता संदेश।।

नारी पूजक देश में, नारी का अपमान।
बाहर बैठा गिद्ध है, घर में है शैतान।।

हिन्दुस्तानी फौज का, जग में ऊँचा नाम।
मर मिटते जो देश पर, उनको सदा सलाम।।

-कैलाश झा किंकर
क्रांतिभवन, कुष्णानगर, खगड़िया-851204
मो0-9430042712

Tuesday, January 26, 2016

कलियों पर प्रतिबन्ध हैं : डॉ.भावना तिवारी

कलियों पर प्रतिबन्ध हैं, भँवरे हैं आज़ाद।
सुरभित कैसे हो चमन, कैसे हो आबाद?

धनी, न्याय के सर चढ़ा, मौज करे दिन-दून।
निर्धन दोषी है सदा, अंधा है कानून।।

बुधिया के दृग में दिखे, दुख का गहरा कूप।
धनिया के हिस्से रही, जीवन भर ही धूप।।

बहुत ज़रूरी हो गया, बदले यह कानून।
तभी सुरक्षित रह सकें, बेटी औ' ख़ातून।।

बच्चे सड़कों पर खड़े, माँग रहे हैं भीख़।
माँ को विचलित कर रही, मासूमों की चीख।।

अंग-अंग को गोद कर, दिखलाते पुरषार्थ।
नारी की रक्षा करें, कहाँ गए वो पार्थ।।

कहीं बाढ़ की आपदा, कहीं सूखते ख़ेत।
रुष्ट प्रकृति हमसे हुई, सीधा है संकेत।।

युग-युग से दोषी रही, केवल नारी जात।
बनती हूँ पाषाण मैं, करते तुम आघात।।

सद्कर्मों के पंथ पर, रहो सदा गतिमान।
तमस बुराई का छँटे, पापों का अवसान।।

रिसते छप्पर में कटे, बुधिया की हर रात।
तिस पर बेमौसम हुई, ओलों की बरसात।।

केवल विज्ञापन हुए, सम्वेदन-आक्रोश।
निर्धन को बस शून्य है, भरे हुए हैं कोश।।


चप्पल चटकाते फिरें, मानुष प्रतिभावान।
दूध-मलाई खा रहे, चापलूस बेईमान।।

-डॉ.भावना तिवारी

drbhavanatiwari@gmail.com




Friday, January 1, 2016

तन के गोरे मन के काले

तन के गोरे मन के काले
देखन में अति भोले भाले

हे प्रभु! कैसी सृष्टि बनाई
प्राणी रच दिए बड़े निराले

बातों से इनकी मधु झरता
हैं आखेटक अति विकाराले

मायावी बन जग में डोलें
हैं इनके सब धंधे काले

सब जन इनसे बाख के रहिए
प्राणों के पैड जाएँ लाले

द्रोही देश समाज के वंचक
इनने बड़े बड़े घर घाले

पाप कमाते दुःख उठाते
जीवन के सब पन्ने काले

दुनिया एक अजायबघर है
संभल के रहिए प्राण बचा ले||

- डॉ. बैरिस्टर सिंह यादव 

हिंदी विभागाध्यक्ष, गुलाब पी जी महाविद्यालय
सांडी, हरदोई 




Monday, December 21, 2015

त्रिलोक सिंह ठकुरेला की कह मुकरियाँ

जब भी देखूं , आतप हरता ।
मेरे मन में सपने भरता ।
जादूगर है , डाले फंदा ।
क्या सखि, साजन ? ना सखि , चंदा।
2. 
लंबा कद है , चिकनी काया ।
उसने सब पर रौब जमाया ।
पहलवान भी पड़ता ठंडा ।
क्या सखि, साजन ? ना सखि , डंडा ।
3. 
उससे सटकर , मैं सुख पाती ।
नई ताज़गी मन में आती ।
कभी न मिलती उससे झिड़की ।
क्या सखि, साजन ? ना सखि , खिड़की ।
4. 
जैसे चाहे वह तन छूता ।
उसको रोके , किसका बूता ।
करता रहता अपनी मर्जी ।
क्या सखि, साजन ? ना सखि , दर्जी ।
5.
कभी किसी की धाक न माने।
जग की सारी बातें जाने ।
उससे हारे सारे ट्यूटर ।
क्या सखि, साजन ? री , कंप्यूटर ।
6.
यूँ तो हर दिन साथ निभाये।
जाड़े में कुछ ज्यादा भाये ।
कभी कभी बन जाता चीटर ।
क्या सखि, साजन ? ना सखि , हीटर ।

-त्रिलोक सिंह ठकुरेला

बंगला संख्या- 99 ,
रेलवे चिकित्सालय के सामने,
आबू रोड -307026 ( राजस्थान )

राजेश जैन राही के दोहे

शोर करे होता नहीं, सत्य कभी कमजोर।
मिले नहीं अंगूर तो, खट्टे कहता चोर।।
 
कभी आपदा बाढ़ की, कभी तेज भूचाल।
मानव बंधन में नहीं, कुदरत भी विकराल।।

कई मुखौटे ओढ़कर, मिलते हैं इंसान।
बुरे वक्त में हो रही, अच्छे की पहचान।।

मुद्दे फर्जी हो गए, गया फर्ज वनवास।
राजनीति विरहन हुई, कुर्सी की बस आस।।
 
राजा का है काफिला, खड़े रहेंगे आम।
बहस करे होना नहीं, हासिल कुछ परिणाम।।

सत्य कभी हारे नहीं, नहीं मचाए शोर।
मुझसे सच्चा कौन है, कहता अक्सर चोर।

गंगा धारा प्रेम की, जीवन का आधार।
पापों को धोकर दिए, हमने क्या उपहार।।
 
छुट्टी देकर काम को, चलो बजांये गाल।
कौन भला रोके हमें, संसद है ननिहाल।।

-राजेश जैन राही

आई-1, राजीव नगर, रायपुर
मो. 09425286241

Monday, December 14, 2015

चार कुण्डलिया छंद

१.
वीर दशानन पूछता, कहाँ गए श्रीराम|
वंशज तेरे कर रहे, मुझ से घटिया काम||
मुझसे घटिया काम, आबरू मिलकर लूटें|
बिक जाता क़ानून, नराधम धन से छूटें|
अनाचार हर ओर, देश अब लगता कानन|
आकर देखो राम, भला है वीर दशानन||

२.

जन सेवा में लीन हैं, गिद्ध भेड़िये बाज|
मिलते नहीं अवाम से, डरते हैं वनराज||
डरते हैं वनराज, सदा पहरे में रहते|
आती तनिक न लाज, स्वयं को सेवक कहते|
पाने को विश्वास, बांटते पहले मेवा|
खूब मचाते लूट, नाम देते जनसेवा||

३.

खूब लुटाया बाप ने, निज बेटों पर प्यार|
बूढा होकर बन गया, अब अनचाहा भार ||
अब अनचाहा भार, पूत मुख से नहीं बोलें|
बहू चलायें बाण, जुबां जब जब भी खोलें|
कह यादव कविराय, खुदा की है सब माया|
आज हुआ लाचार, प्यार कल खूब लुटाया||

४.

अस्सी को रोटी नहीं, बीस उडाते माल |
आज़ादी के बाद भी, बुरा देश का हाल ||
बुरा देश का हाल, गरीबी बढती जाये|
नेता का जो खास, नौकरी वो ही पाये|
बेबस हुए किसान, गले में डालें रस्सी |
बीस हुए धनवान, कर्ज में डूबे अस्सी||

-रघुविन्द्र यादव



Sunday, November 8, 2015

दोहे - प्रबोध मिश्र "हितैषी"

लघु दीपक भी जल उठा, लिए सबल विश्वास।
अंधकार घर ढूंढता, फैला जगत उजास।।

प्रकाश, दीप व रौशनी, किरण और उजियार।
खुशियों के ये नाम हैं, इस असार संसार ।।

धनतेरस धड़कन बने, दीवाली दिल यार।
सहेजना धन श्वेत को, है लक्ष्मी सत्कार।।

शुभ दीवाली आ गई, खर्चों की सौगात।
महंगाई व्याधि बनी, हुई हमारी मात ।।

वह पड़ोस का छोकरा, लगे टमाटर लाल।
और हमारे पुत्र की, लटक गई है खाल ।।

इधर दिवाली आ रही, महँगी शकर व दाल।
खाना तो मुश्किल हुआ, कहाँ मिठाई थाल।।

-प्रबोध मिश्र "हितैषी"

बड़वानी (म.प्र.)-451-551

अजीतेन्दु के दोहे

मन का अँधियारा मिटे, सुखी रहे घर-बार।
लगे दमकता लाडला, दीपों का त्योहार॥

चाँद-सितारे थे नहीं, सूना था आकाश।
दीप-पटाखे भर रहे, उसमें नव-उल्लास॥

धर्म तनिक चुप-चुप दिखा, थामे अपना छोर।
दीवाली पर यों हुआ, आडंबर चहुँओर॥

चाइनीज मत बल्ब लें, दीवाली पर मीत।
मिट्टी के दीपक जलें, बढ़े आपसी प्रीत॥

भारत को बल दे रहे, सनातनी सब पर्व।
"गौरव" ये दीपावली, हमसब का है गर्व॥

-कुमार गौरव अजीतेन्दु

शाहपुर, दानापुर (कैन्ट)
पटना - 801503 बिहार

Sunday, October 25, 2015

पीयूष द्विवेदी 'पूतू' के दोहे

वंशवाद होता जहाँ, इतना रखना ध्यान।
प्रतिभा घुट-घुटकर मरे, उल्लू पाएँ मान॥

अंग्रेजी हावी हुई, हिंदी है बदहाल।
देश निकाला दे रहे, माँ को अपने लाल॥

इक विधवा की जिंदगी, होती नरक समान।
घर-बाहर घुट-घुट जिए, सहे सदा अपमान॥

सड़के बनतीँ वर्ष भर, फिर भी खस्ताहाल।
करके बंदरबाँट सब, होते मालामाल॥

शिक्षा लेना हो गया, काम बड़ा आसान।
घर बैठे डिग्री मिले, अगर आप धनवान॥

देख दशा माँ गंग की, बहते मेरे नैन।
गंदा नाला क्यों बनी, सोच रहा दिन-रैन॥

कहीं सुरक्षित हैं नहीं, पंचायत-बाजार।
सहमी-सहमी लड़कियाँ, छाप रहें अखबार॥

-पीयूष कुमार द्विवेदी 'पूतू'


Thursday, October 22, 2015

राजपाल सिंह गुलिया की ग़ज़ल



पथ के दावेदार सभी !
पैरों से लाचार सभी !

दुनिया एक तमाशा है ,
लोग हुए किरदार सभी !

परख लिया था बस यूं ही ,
भाग गए हैं यार सभी !

बाँट रहे हैं ख़ौफ़ यहाँ ,
रक्त सने अखबार सभी !

बातें जिनकी डगमग थी ,
खो बैठे आधार सभी !

कौन बचाए दुश्मन से ,
सोये पहरेदार सभी !

देगा कौन दवा 'गुलिया ' ,
चारागर बीमार सभी !

-राजपाल सिंह गुलिया

रा प्रा पा, भटेडा, झज्जर

Saturday, October 17, 2015

प्रियंका पाण्डेय के दोहे

प्रथम पूज्य गणराज हैं, वंदन करूं गणेश। 
मंगल करो विपदा हरो, सुधि लीजो प्रथमेश।।

हंसती चंचंल रश्मियां, ले आईं नव भोर। 
जाग रहे अब फूल तो, पंछी करते शोर।।

बिखरी प्यारी रोशनी, पंछी गाते गीत। 
अधरों पर मुस्कान है, सांसों में संगीत।।

कुहरे में चमकी किरन, क्षितिज हो गया लाल। 
सूरज दादा आ रहे, ओढ रेशमी शाल।।

गाएं सब चरने लगीं, पग से उडती धूल। 
आसमान के भाल पर, सजता अक्षत फूल।।

जोत कलश लेकर चली, लाई नवल प्रभात। 
आकर ऊषा सुंदरी, दे जाती सौगात।।

होता है दिन रात में, कैसा ये संबंध |
य़े आता वो जा रहा, अनुपम यह अनुबंध।।
 
 नीच काज की लौ सदा, होती बडी प्रचंड। 
जल जाते सदकर्म सब, ईश्वर देता दंड ।।
 
मीठी वाणी बोलिए, आतुर रहते प्राण। 
शूल बने उर में चुभें, सदा व्यंग के बाण ।।
 
धन के मद में चूर हो,जातक अंधा होय। 
पर जब खाली हाथ हो, साथ दिखे नहिं कोय ।।

दंभ लोभ माया सभी, पंथ नरक के होय। 
फैले यह विषबेल ज्यों,बचा सके नहिं कोय।।

कडवी वाणी बोलते, उगलें मुख से आग। 
मानुष का बस तन धरा, उनसे मीठे काग।।
 
जिन हाथों में खेल के, जानी जग की रीत। 
उनसे संध्या काल में, कम मत करना प्रीत।।

जिन हाथों के पालने, थके नहीं दिन रैन। 
वो ही ढलती आयु में, खोजें मीठे बैन।।

निशा चंद्र का हो मिलन, तारें दें सौगात। 
पुलकित होती चांदनी, झिलमिल करती रात।।
 
झिलमिल करते दीप ज्यों, मोती जडे हजार। 
तारों की यह रोशनी, कुदरत का श्रंगार।।
 

-प्रियंका पाण्डेय