विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Saturday, October 17, 2015

अरुन शर्मा 'अनन्त' के दोहे

आजादी है नाम की, नाम मात्र गणतंत्र ।
व्यापित केवल देश में, पाप लोभ षड़यंत्र ।।

हुआ मान सम्मान का, बंधन भी कमजोर ।
बढ़ता जाता है मनुज, स्वयं पतन की ओर ।।

मानव मस्ती मौज औ, मय की मद में चूर ।
अपने ही करने लगे, जख्मों को नासूर ।।

नारी को नर से मिले, प्रेम मान सम्मान ।
मन से मेरी कामना, पूर्ण करें भगवान ।।

मन से सच्चा प्रेम दें, समझें एक समान ।
बालक हो या बालिका, दोनों में भगवान ।।

उत्तम शिक्षा सभ्यता, भले बुरे का ज्ञान ।
जीवन की कठिनाइयाँ, करते हैं आसान ।।

नित सिखलायें नैन को, मर्यादा सम्मान ।
हितकारी होते नहीं, क्रोध लोभ अभिमान ।।

नव युग पीढ़ी प्रेम का, करने लगी हिसाब ।
हाँ ना के इस खेल में, लुटता गया गुलाब ।।

जीवन भर मजबूरियां, मेरे रहीं करीब ।
सिल ना पाया मैं कभी, अपना फटा नसीब ।।

तप तप के जब धूप में, धरा हुई बेचैन ।
तब मेघों ने वस्तुतः, खोले अपने नैन ।।

भर भर गगरी प्रेम से, मेघ बुझाता प्यास ।
त्रिषित धरा का अंततः, टूटा है उपवास ।।

अनहितकारी न्यूनता, सूखे जंगल खेत ।
खड़ी अधिकता भी लिए, संकट के संकेत ।।

सरस सहज सुन्दर सरल, मधुबन सी मुस्कान ।
इस पृथ्वी पर एक तुम, सुन्दरता की खान ।।

गहरे सागर से अधिक, सुन्दर निश्चल नैन ।
जहाँ डूबने से मिले, व्याकुल मन को चैन ।।

उलझन मुश्किल वेदना, से निर्मित यह खेल ।
खुशियाँ बंधक प्रेम में, अरमानों को जेल ।।

कठिन वेदना की घड़ी, या दुख की बरसात ।
अम्बर के जैसे अडिग, खड़े सदा हैं तात ।।

सरोकार भगवान से, रखते जो दिन रैन ।
सुखमय जीवन सर्वदा, मिलता है सुख चैन ।।

सदाचार व्यवहार का, समय गया है बीत ।
दौलत जिसकी जेब में, उसकी होती जीत ।।

-अरुन शर्मा 'अनन्त'

09899797447

Wednesday, October 14, 2015

अम्बरीश श्रीवास्तव 'अम्बर' के दोहे

जनहित में दंगे हुए, सम्यक हुआ प्रयास|
अभी मिलेगा मुफ्त में, सुख सुविधा आवास||

कूटतंत्र की राह पर, छूटतंत्र का राज|
लोकतंत्र है सामने, रामराज्य है आज||

चोरी यद्यपि पाप है, चोरी है अपराध|
फिर भी चोरी कीजिये, ऑफीसर को साध||

जो भी मंदिर में गया. उसे डरा ही मान|
बाकी सब शमशेर हैं, कहते आमिर खान||

हरित-वाटिका में सुनें, सीत्कार औ' आह|
गुत्थमगुत्था आधुनिक, हो गन्धर्व विवाह||

गोचर सारे गुम हुए, नहीं रहे खलिहान|
गोवंशी तक कट रहे, कहाँ गए इंसान||

भगिनी-मातु समान है, नारी है अनमोल|
फिर भी दुनिया मापती, नारी का भूगोल||

घोटाला ही कीजिये, मत डरिये सरकार|
पकड़ेगा कोई नहीं, जन्मसिद्ध अधिकार||

टीचर जनगणना करें, पल्स-पोलियो आम|
एक पढाई छोड़कर, सौंपे सौ-सौ काम||

गाड़ी-बँगला कीमती, दोनों में हो प्यार|
भाई जी अपनाइए, खुलकर भ्रष्टाचार||

अल्प वस्त्र में अधखुले, अति आकर्षक अंग|
चंचल मन को मारिये, व्यर्थ करे यह तंग||

आमंत्रण दें द्रौपदी, चीर मचाये शोर|
लूट रहे अब लाज को, कलि के नन्दकिशोर||

अनशन ही अपनाइए, दे इच्छित आकार|
सत्ता की सीढ़ी बने, पावन भ्रष्टाचार||

कितना हुआ विकास है, देखें एक मिसाल|
गिरता जाता रूपया, डालर करे कमाल||

सत्ता संरक्षित करे, भेजे ताजा खेप|
कपट गुंडई लूट छल, किडनैपिंग औ' रेप||

गाँव-गाँव में चल रहे, बेशर्मी के काम|
शीला बनी जवान है, मुन्नी तक बदनाम||

कैसा यह दुर्भाग्य है, मूल कर दिया लुप्त|
हिन्दी-हिन्दी जाप हो, वैदिक भाषा सुप्त||

पढ़े विदेशी वेद तक, भारतीय हों बोर|
देवनागरी छोड़कर, अंग्रेजी का जोर||

खाया चारा कोयला, प्यार चढ़ा परवान|
करें दलाली मित्रवर, बहुत भला ईमान||

रोजी-रोटी, अन्न-जल, सब दे भारत देश|
देश विरोधी आचरण, से हो दिल में क्लेश||

-इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर' 

सीतापुर, उत्तर प्रदेश

Monday, October 12, 2015

रामशंकर वर्मा के दोहे

बूढ़ी ममता का रहा, अब इतना ही मोल।
रामायन ऐनक वसन, अरू दो फुल्के गोल।

हम कितने स्वार्थी हुए, कितने हुए तटस्थ।
नित अव्यवस्था देखते, धरे हस्त पर हस्त।।

इक अरसे से व्यस्तता, रही पसारे पॉंव।
उजड़ा उजड़ा सा रहा, कविताओं का गॉंव।

घोल गया मन प्राण में, मधुरस बारम्बार।
शक्करपारे सा प्रिये, तेरा मेरा प्यार।

नहलाने से आज तक, कौवे हुए न हंस।
सुधरे हैं उपदेश से, कहो कभी क्या कंस।

कोठी के कंदील से, झालर करती होड़।
इधर दिये के पेट में, रह-रह उठे मरोड़।

सूप लिखे तो ठीक है, अपने यश के वेद।
क्या छलनी की बात का, जिसमें छप्पन छेद।

सोहबत में इंसान के, पेड़ हो गये घाघ।
नागा बन कर तप करें, ज्यों ही आये माघ।

पूतों फल दूधों नहा, वाले अमृत बोल।
भूल कहानी कपट की, बके समय बकलोल।

किन संग कीजै मित्रता, किन संग करिये प्रीत।
सम्बन्धों के हाट में, हुए बिकाऊ मीत।

चौतरफा उन्नति दिखे, भारत दिखे महान।
इसीलिए हर प्रान्त में, उनके बने मकान।

अपनी अपनी मान्यता, अपने अपने राम।
जग जिसके पीछे चले, वही पूज्य श्रीमान।

अपने तन से सौ गुना, चींटी ढ़ोती भार।
तू ढ़ेला भर दुख रखे, बैठा है मन मार।

तृष्णा की नर्तन सभा, चलती है दिन रैन।
व्याकुल मन अन्यत्र चल, जहॉं मिले कुछ चैन।

मन मलंग तन बांकुरा, हिरदय सिन्धु समान।
जीवन तुम ऐसे बनो, त्याग मोह अभिमान।।

सागर से भर ले चले, मेघ वारि जंगाल।
उलट दिये नभ श्रृंग से, वसुधा हुई निहाल।।

खेत लबालब नीर से, बोले मस्त किसान।
चले पलेवा खेत में, रोपेंगे अब धान।।

-रामशंकर वर्मा

उतरेठिया, लखनऊ-226029

यह कैसी स्वाधीनता, जीना जहां मुहाल - जय चक्रवर्ती

सड़क बनी, बिजली मिली, गाँव हुआ खुशहाल ।
कोयल सबसे पूछती, कहाँ हमारी डाल ।।

सपना लिए विकास का, गाँव हुए वीरान.।
दिन-अनुदिन मोटे हुए, मुखिया, पंच, प्रधान ॥

रहे नहीं घर, बन गए, पग-पग यहाँ मकान ।
हुई आधुनिक इस तरह, गाँवों की पहचान ॥
 
आया मेरे गाँव में, इस ढंग से बाज़ार ।
आँखें, आँसू , आह, सब बिकने को तैयार ॥

घर के भीतर घर बने, बने द्वार में  द्वार ।
अपना दुख किस से कहे, आँगन की दीवार॥

मेल-मोहब्बत-सादगी, मस्ती-धूम-धमाल ।
सारे जेवर लुट गए, गाँव हुआ कंगाल ॥

दालानों तक आ गई, मीनारों की भीड़ ।
सहमी गौरैया खड़ी, कहाँ बनाए नीड़ ॥

गौरैया रहने लगी, आए दिन बीमार ।
नन्हें -नन्हें नीड़ हैं, बड़ी-बड़ी दीवार ॥

सूनी आँखें पूछतीं, सब से यही सवाल ।
यह कैसी स्वाधीनता, जीना जहां मुहाल ॥

मेहनतकश के पेट पर, जिनकी क्रूर-खरोंच ।
उनकी ही सजती यहाँ, सोने से नित चोंच ॥

सिंहासन पर जो चढ़े, जनता की जय बोल।
जनता उनके हाथ का, अब केवल पेट्रोल ॥

छौनों के सपने छिने,  गौरैयों के नीड़.।
लालक़िला बुनता रहा, वादे -भाषण-भीड़ ॥

जो भी आया रख गया, जलता एक अलाव ।
दिल्ली का दिल जानता, दिल पर कितने घाव॥

सबको अंधा कर गया, कुर्सी वाला रोग ।
गिरें न जाने कब-कहाँ, बिना आँख के लोग ॥

चंद चाबियाँ ही रहीं, हर ताले को खोल ।
तंत्र लोक है अब यहाँ, लोक तंत्र मत बोल ॥

जहां आचरण से चरण, समझे जाएँ श्रेष्ठ ।
ज्ञान भला कैसे वहाँ, पाये मान यथेष्ट ॥

घोटालों की बारिशें,. घोटालों की बाढ़ ।
मेहनतकश के खून में, सनी सियासी-दाढ़॥

हमने नापी उम्र-भर, शब्दों की जागीर ।
ढाई-आखर लिख हुए, जग में अमर कबीर ॥

-जय चक्रवर्ती

  रायबरेली

Saturday, October 10, 2015

दोहे - ऋता शेखर 'मधु'

शिखी शेर शतदल सभी, भारत की पहचान|
प्राणों से प्यारा हमें, जन गन मन का गान||

सर्व धर्म संपन्नता, भारत का है नूर|
दिल से दिल मिल कर रहें, खुशियाँ हों भरपूर||

जय भारत के घोष से, झूम उठा आकाश|
केसर हरा सफेद का, फैला प्रखर प्रकाश|

सोंधी खुशबू में बसे, मेरे तन मन प्राण|
आओ हम मिलकर करें, नव भारत निर्माण|

लोभ मोह में कट गए, जीवन के दिन चार|
मोक्ष क्षितिज पर है खड़ा, कैसे जाऊँ पार||

बैठो मिल-जुल दो घड़ी, तुम अपनों के पास|
पल भर दुख-सुख बाँट लो, मन में घुलें मिठास||

चंदा चंचल चाँदनी, तारे गाएँ गीत|
पावस की हर बूँद पर, नर्तन करती प्रीत||

हिल जाना भू-खंड का, नहीं महज संजोग|
पर्वत भी कितना सहे, कटन-छँटन का रोग||

बूढ़ी आँखें है विकल, कब आएगा लाल|
रात कटे उम्मीद में, पूछेगा वो हाल||

तरु फल फूलों से लदे, झुककर दें यह ज्ञान|
जिनमें भरी विनम्रता, वही लोग विद्वान||

कहाँ -कहाँ हैं गुण छुपे, ढूँढें धर कर धीर|
कालिख में हीरा मिले, बीच नारियल नीर||

सारे तीरथ पुण्य भी, खो देते हैं अर्थ |
पुत्रों के रहते हुए, दिखे पिता असमर्थ||

मोहन मथुरा जा बसे, बसी बिरज में पीर|
रोती छुप छुप राधिका, भर अँखियन में नीर||

-ऋता शेखर ‘मधु’

दोहे- शालिनी रस्तौगी

व्याकुलता हिय की सखी, दिखा रहे हैं नैन|
प्रियतम नहीं समीप जब, आवे कैसे चैन||

मात पिता दोनों चले, सुबह छोड़ घर द्वार |
बालक नौकर पालते, सीखे क्या संस्कार ||

इज्ज़त पर हमला कहीं, कहीं कोख में वार |
मत आना तू लाडली, लोग यहाँ खूंखार ||

बन कर शिक्षा रह गई, आज एक व्यापार |
बच्चे ग्राहक  हैं यहाँ, विद्यालय बाज़ार ||

इधर बरसते मेघ तो, उधर बरसते नैन |
इस जल बुझती प्यास औ, उस जल जलता चैन ||

सावन आया सज गई, झूलों से कुछ डाल|
पिया गए परदेस को, गोरी है बेहाल ||

नाजुक-सी इस जीभ में, ग़र आ जाए खोट |
यही तेज़ तलवार सी, करे मर्म पर चोट ||
.
जिसने अपने खून से, दिए देह औ' प्रान |
वो माँ यूँ घर में पड़ी, ज्यों टूटा सामान ||

निभा सकें कर्त्तव्य भी, ज्यों पाते अधिकार |
हो स्वतंत्रता का तभी, स्वप्न पूर्ण साकार ||

धर नारी की पीठ पे, संस्कारों का भार |
मुक्त हुआ फिरता पुरुष, मर्यादा कर पार ||

ऊपर बातें त्याग की, मन में इनके खोट |
दुनिया को उपदेश दें, आप कमाएँ नोट ||

कर्म देख इंसान के, सोच रहा हैवान|
काहे को इंसानियत, खुद पे करे गुमान ||

अपनी संस्कृति सभ्यता, लोग रहे हैं छोड़ |
हर कोई है कर रहा, अब पश्चिम की होड़ ||

नैनन से नैना लड़ें, नैन हुए मिल चार |
नैनों के इस खेल में, दिल बैठा खुद हार ||

एक कोख के थे जने, पले बढ़े भी साथ|
दुश्मन बन अब हैं खड़े, माँ के दोनों हाथ ||

- शालिनी रस्तौगी

गुडगाँव

Sunday, October 4, 2015

दोहे - बृजेश नीरज

धूप, दीप, नैवेद बिन, आया तेरे द्वार।
भाव-शब्द अर्पित करूँ, माता हो स्वीकार।।

इस तन में ही भूख है, इस तन जागे प्यास।
जिस तन ढेरों चाहना, उस तन से क्या आस।।

उथला-छिछला ज्ञान यह, दंभ बढ़ाए रोज।
कुंठाओं की अग्नि में, भस्म हुआ सब ओज।।

मौन सभी संवाद हैं, शंकाएँ वाचाल।
काई से भरने लगा, संबंधों का ताल।।

जटिल सभी अभिप्राय हैं, क्लिष्ट हुए सब शब्द।
जड़ होती संवेदना, अवमूल्यन प्रत्यब्द।।

लहर-लहर हर भाव है, भँवर हुआ है दंभ।
विह्वल सा मन ढूँढता, रज-कण में वैदंभ।।

चलते-चलते हम कहाँ, पहुँच गए हैं आज।
ऊसर सी धरती मिली, टूटे-बिखरे साज।।

पत्थर यह तन-मन हुआ, पत्थर ही सौगात।
पत्थर में दिन बीतता, पत्थर-सी है रात।।

दो रोटी की चाह में, दिन-दिन खटना काम।
भूख पेट की यह मुई, देती कब आराम।।

तेरे-मेरे प्रेम का, अजब रहा संजोग।
नयनों ने गाथा रची, नयनन योग-वियोग।।

नयनों के संवाद पर, बढ़ा ह्रदय-अनुनाद।
अधरों ने अंकित किया, अधरों पर अनुवाद।।

मीरा का भी प्रेम था, गिरधर में मन-प्राण।
राधा भी थी खो गयी, सुन मुरली की तान।।

रौशन होंगे घर सभी, ऐसा था विश्वास।
जग अँधियारा देख के, टूट गयी सब आस।।

ओढ़ चुनरिया स्याह सी, उतरी है यह रात।
गुपचुप सी वह कर रही, धरती से क्या बात।।

हौले-हौले बह रही, देखो मंद बयार।
रोम-रोम पुलकित हुआ, कण-कण में है प्यार।।
 
पनघट की हलचल गई, कहीं न पानी देख।
नदिया की कल-कल गई, बची न पानी रेख।।

अजब गजब फैशन हुआ, ताल-तलैया छोड़।
देखो बोतल के लिए, मची हुई है होड़।।

- बृजेश नीरज

"दोहा संकलन में प्रकाशन हेतु मौलिक दोहे"!

- बृजेश नीरज

 लखनऊ
ईमेल- brijeshkrsingh19@gmail.com








दोहे - शशि पुरवार

दोहे - महेन्द्र कुमार वर्मा

दर्पण को मत कोसना, दर्पण है नादान|
हरदम सच कहता फिरे, खुद को तू पहचान||

जो खोया वो भूल जा, सुन जीवन का सार|
पाता है मानव यहॉ, करनी के अनुसार||

जीवन में सुख जोड़ ले, घटा दुखों की मार|
सबसे मिल के रह सदा, जीवन के दिन चार||

अनायास गर सुख मिले, मत जाना दुख भूल|
हॅसता हुआ गुलाब भी, खिले नहीं बिन शूल||

कहती है ये जिन्दगी, कर थोड़ा उपकार|
देने से घटते नहीं, विद्या और विचार||

कलम कभी तलवार है, कलम कभी है ढाल|
कलम सामने मौन हैं, सारे गूढ़ सवाल||

जीवन में कुछ सुख मिले, और मिले संताप|
जैसे ही इक सुख मिला, जागा मन में पाप||

सच्चाई का जगत में, होता नही विकल्प|
राह झूठ के हैं कई, पर मंजिल हैं अल्प||

धोखेबाजों पर कभी, करना मत विश्वास|
इनकी मीठी बात में, होता विष का वास||

इक दीपक लड़ता रहा, तम से सारी रात|
जो कोशिश करते नहीं, पाते हरदम मात||

मनुज बहुत कमजोर है, मनुज बहुत लाचार|
मनुज मनुज पर ही करे, हरदम अत्याचार||

जब चलती सच की नदी, बहती अविरल धार|
चट्टानों को चीरती, नहीं मानती हार||
 
जीवनपथ पर मिल रहा, हिचकोलों का प्यार|
हो सपाट गर जिन्दगी, जीने का क्या सार||

सच कहना आसान है, पर वह सच मत बोल|
जो कटुता से हो भरा, लगे जहर का घोल||
 
सीखो भाषा प्यार की, होती है आसान|
इसमें नैना बोलते, रहती मूक जुबान||

जीवन के हर मोड़ पे, आते हैं व्यवधान|
कोई उनसे जूझता, कोई करे निदान||

आसानी से कुछ नही, मिलता मेरे मीत|
या तो उसे खरीद लो, या लो उसको जीत||

 - महेन्द्र कुमार वर्मा

भोपाल 
मो.9893836328

Sunday, September 20, 2015

रजनी मोरवाल के दोहे

टेसू पर मस्ती चढ़ी, वन-उपवन सब लाल।
घाटी  मारे  शर्म के,  पोंछ  रही  है गाल।।

वासंती परिधान में, सरसों  हुई  जवान।
वधु बनकर रितुराज की, पियराई परवान।।

मौसम आवारा हुआ, पीकर आया भंग।
ढपली भोंपू चंग पर, छिड़े द्विअर्थी रंग।।

धूप खिली दिन हो गए, रंगीले बेशर्म।     
फागुन की रातें हुई, सेमल से भी नर्म।।

मन मेरा मधुमास है, तन से फूटे गंध।
फागुन ने तोड़े सखी, सुधियों के प्रतिबंध।।

बिन  तेरे  फागुन  हुआ,  बेमानी  बेरंग।     
सूनी अँखियाँ सो गई, लेकर आँसू संग।।

रिश्तों  में  सीलन  भरी, फिर  दरकी  दीवार।
आँगन  में  उगने  लगी, तब  से खरपतवार।।


दर्द मिला  तो हो गया, जीने  का  सामान।
चाक जिग़र ने कर दिया, जीवन ही आसान।।

तेरी  चाहत  में  हुए, हम  कितने  मजबूर।
तुझसे तो हम दूर थे, अब ख़ुद से भी दूर।।

उनके  तानों  से  बढ़ा,  मेरा  तो  विश्वास।
शायद उनको दीखता, मुझमें कुछ है ख़ास।।

बुरे  वक्त  में आदमी, हो  जाता  गुमराह।
दंभ कभी टिकता नहीं, निर्धन हो या शाह।।

बँगले  में  नौकर रहे, बालकनी  में बाप।
प्रायोगिक संसार में, स्वार्थ हुआ संताप।।

प्रेम  ढूँढता  रह  गया, संवादों  के  अर्थ।
कही  अनकही  हो गई, शब्द  हुए असमर्थ।।

                        -रजनी मंगल मोरवाल, जयपुर      

प्रोफ़ेसर रमेश 'सिद्धार्थ' की ग़ज़ल

दिल के अँधिआरों में वो ख्वाबों का मंजर डूबा
गम के सैलाब में अश्कों का समंदर डूबा

एक एक करके बुझे सारे उम्मीदों के चिराग
इतनी मायूसी की अरमानों का खंडर डूबा

यार ने वार किया पीठ के पीछे से जब
शर्म से लाल हो गद्दार का खंजर डूबा

हमसे मत पूछो कि है जाम ये कितना गहरा
मय के प्याले के भँवर में तो सिकंदर डूबा

देख कुदरत के हसीं, दिलनशीं नज्जारों को
एक रूहानी-सी मस्ती में कलंदर डूबा

चीखें बच्ची कि कँपाती रहीं हर जर्रे को
बस्तियाँ मौन थीं पर शोक में अम्बर डूबा

डूब जाऊँगा तेरी मदभरी आँखों में सनम
जैसे पीकर के गरल ध्यान में शंकर डूबा

-85, हाउसिंग बोर्ड,  रिवाड़ी

कृष्ण गोपाल विद्यार्थी की ग़ज़ल

छत की उम्र पूछनी है तो ढहती दीवारों से पूछ
आग का मतलब पूछ न मुझसे जलते अंगारों से पूछ

छेनी की चोटों से जिनका रेशा रेशा दुखता है
ऊँचा उठने की कीमत तो ज़ख्मी मीनारों से पूछ

बड़े बड़े महलों का तू इतिहास लिखे, इससे पहले
कितने घर बरबाद हुए थे बेघर बंजारों से पूछ

पुरखों की संघर्ष-कथा कम्प्यूटर क्या बतलाएगा
कैसे मुकुट बचा माता का टूटी तलवारों से पूछ

ओ मगरूर मुसा$िफर तेरे स$फर की फिर भी मंजि़ल है,
जिनको चलना और $फ$कत चलना है उन तारों से पूछ

 - बहादुरगढ़, हरियाणा

Friday, September 18, 2015

हाइकु-दोहे

प्यासी धरती/ खग दुखित रोते/ बढ़ती भूख।
मिटते प्राणी/ है चकित नाहर/ घटा रसूख॥

घिरा अँधेरा/ डर नहीं मनुज/ जला ले दीप।
छले न जाना/ ध्यान से पग धर/ लक्ष्य समीप॥

सावन आया/ खिल उठी बगिया/ मस्त मयूर।
जगी उमंगें/ प्रीत की रिमझिम/ चढ़ा सुरूर॥

हाय गरीबी/ नोंचती तन-मन/ करे हताश।
जला न चूल्हा/ रो पड़े बरतन/ बुझती आस॥

-कुमार गौरव अजीतेन्दु
शाहपुर, दानापुर (कैन्ट)
पटना - ८०१५०३
बिहार

ताराचंद शर्मा 'नादान' की ग़ज़ल

शजर से टूट कर पत्ते का कोई दर नही होता
कटा जो अपनी मिट्टी से, फिर उसका घर नही होता

हजारों ख्वाब ले कर, दूसरे के घर चले जाओ
पराई रोशनी का अपना सा मंजर नही होता

जड़ें जिसकी रही कायम, कभी उस पेड़ पर यारों
हज़ारों आंधियाँ गुजरें, असर तिलभर नही होता

हम अपने हौसलों के पंख जो पहचान लें पहले
तो फिर परवाज़ करने में कोई भी डर नही होता

लुटाये गुल मुहब्बत के, यहां जिस शख्स ने हरदम
कभी उस हाथ में, नफ़रत भरा पत्थर नही होता

खुदा की राह में जो नेकियों के साथ चलता है
बगल में उसकी, कोई घात का खंजर नही होता

सम्भालो कद जरा ‘नादान’ चादर के मुताबिक तुम
वगरना पैर ढकने पर, ढका हो सर, नही होता

-ताराचन्द "नादान"

+91 9582279345


Tuesday, September 8, 2015

मुक्तक - चंद्रसेन विराट

दर्ज करके सवाब क्या रखना।
खुद नुमाई का ख्वाब क्या रखना।
हो सके करके भूल ही जायें-
नेकियों का हिसाब क्या करना।।

संकुचित सोच नहीं रखता हूँ।
सोच में लोच  नहीं  रखता हूँ।
सबसे मिलता हूँ बहुत खुलकर मैं-
मन में संकोच नहीं रखता हूँ।।

मनन की निष्ठा को कष्ट होता है।
तब ही विश्वास भ्रष्ट होता है।
दिल में घुसकर नहीं निकल पाता-
प्रेम संशय से नष्ट नहीं होता।।

रूप राजजस गुमान रखता है।
आँख में आसमान रखता है।
अंतरिक्षों के पार जाने की-
कल्पना में उड़ान रखता है।।

संगमरमर की स्निग्ध प्रतिमा है।
भव्य गौरव है और गरिमा है।
रूप लावण्य, ये सुदर्शनता-
सब ये तारुण्य की ही महिमा है।।

आधे घँूघट में चन्द्रिमा देखी।
हमने साक्षात मधुरिमा देखी।
दीप लेकर चली सुहागन तो-
कल अमावस में पूर्णिमा देखी।।

फिर से जीवित अतीत हो आया।
भाव मन का पुनीत हो आया।
प्यार का पहला स्पर्श पाते ही-
मन मेरा गीत-गीत हो आया।।

-चन्द्रसेन विराट

121, वैकुंठधाम कॉलोनी, इन्दौर

शिवदत्त शर्मा के दोहे

आज धरा ने कह दिया, अपने मन का हाल।
अश्कों से तर हो गया, सूरज का रूमाल।।
कड़ी धूप में स्वेद से, लथपथ हुई जमीन।
बरसी रहमत मेघ से, रूप हुआ नमकीन॥
वादों की झडिय़ां लगी, चढ़ा चुनावी रंग।
अजब सियासत मुल्क की, पड़ी कुएं में भंग।।
राह न कोई सूझती, दुविधा में आवाम।
बाजारू संसार में, कलम हुई नीलाम।।
पल में मानवता मरी, शहर बना शमशान।
शासन तब सोता रहा, लम्बी चादर तान।।
नदिया हो तुम नेह की, ममता बहे अपार।
तेरी धारा ले चले, जहां प्यार ही प्यार॥
नद नाले सूखे सभी, विकट हो गई पीर।
धनिया के नैना बहें, कतरा कतरा नीर।।
दुर्गम सागर सामने, मंजिल है उस पार।
स्पर्श एक कहता सदा, हिम्मत कभी न हार॥
चूल्हे हांडी काठ की, चढती बारम्बार।
सौदा कर ईमान का, खूब फला व्यापार॥
धुंधली है संवेदना, पड़ी मनों पर गर्द।      
दर्द आज घट घट उठे, पर न मिले हमदर्द ॥ 
घर घर में कुत्ते बँधे, कैसी चली मुहीम।
मां-बाबा लाचार हैं, खूब फली तालीम।।
तड़प रहा इंसाफ अब, बेबस लोकाचार।
चूहे बिल्ली का मिलन,दिल्ली के दरबार।।
जिनके मन में भाव ना,नैनों में  ना नीर।
समझ नहीं अहसास की,परखें आज कबीर॥

- शिवदत्त शर्मा

9416885264


Sunday, August 30, 2015

दोहे – राम नारायण ‘हलधर'

मौसम बैरी कर गया, सपनों पर आघात ।
वापस तोरण द्वार से , लौट गई बारात ।।

'धनिया' तेरी लाड़ली, रोई सारी रात ।
अँसुवन से धोती रही, मेंहदी राचे हाथ ।।

सूखे कण्ठों ने वहां, समझा था कुछ नीर |
मृग-तृष्णा साबित हुआ, जमना जी का तीर ||

कमल खिलें हर हाल में, क्या मजबूरी हाय !
इक मीठा तालाब भी, दलदल होता जाय ||

दोहों में अपनी हुई, ईद दिवाली तीज ।
दो बीघा का खेत है, ढाई आखर बीज ।।

रहे किरायेदार हम, जब तक रहे जवान ।
चढ़ी न जाये सीढियाँ, खुद का बना मकान ।।

भटक रही थी ज़िन्दगी, लू में नंगे पाँव ।
कोई हमको यूँ मिला, ज्यूँ बरगद की छाँव ।।

शब्द-शरों की ना करो, कुम्हारिन बौछार ।
तेरे-मेरे हाथ में, है प्रिय गीली गार ।।

उम्मीदों की पोटली, दिन दिन जाये रीत ।
देख रहा हूँ बीज को, होते कालातीत ।।

बदरा को पतियाँ लिखूं, अँसुवन से दिन-रात |
वो बरसे तो हो सकें, 'लाडो' पीले हाथ ||

दिन दिन टूटत देह के, तम्बूरे के तार ।
जिजीविषा के राग का, होता नित विस्तार ।।

वो हमसे नाराज़ हैं, हम उनसे नाराज़ |
सबके अपने तर्क हैं, चिड़िया हो या बाज़ ||

मैं उससे कैसे कहूँ, खुलकर दिल की बात |
दिनभर मेरे साथ था, दुश्मन के घर रात ||

पूंजी थी बस प्रेम की, जैसे लाख-करोड़ ।
इक छोटा सा खेत अरु, बैलों की इक जोड़ ।।

छप्पर भी प्रासाद थे, सुख दुःख में थे संग ।
महानगरिया ले गई, जीवन के सब रंग ।।

किससे हम शिकवा करें, किसको दें अब दोष ।
चाँदी छीने जा रही, सोने सा संतोष ।।

आ भी जा संजीवनी, निकट भुला कर रोष ।
बाट निहारत हो गया, हमें नज़र का दोष ।।

रुको अभी यमराज जी, चर्चा है सर्वत्र ।
उनका भी पढ़ता चलूँ, नया घोषणा-पत्र ।।

ललचाते हैं राह को, गेंदा और गुलाब ।
नगर देखता झोंपड़ी, नील-पीले ख्वाब ।।

इसी मोड़ पर हादसे, होते हैं हर बार ।
थोड़ी सी ऊंची करो, आँगन की दीवार ।।

कलियों सी मासूमियत, फूलों सी मुस्कान |
इस धरती पर लड़कियाँ, विधना का वरदान ||

हम ही करते हैं चलो, समझौता-संवाद |
और सहा जाता नहीं, जां लेवा अवसाद ||

इतने भी चुप ना रहो, टूट पड़ेंगे गिद्ध ।
आती-जाती साँस को, कुछ तो करिये सिद्ध ।।

-राम नारायण ‘हलधर’
कोटा [राजस्थान] -324001
Emai-rnmhaldhar@gmail.com

शून्याकांक्षी के दोहे

लिखो किसी भी शिल्प में, मोटा लिखो महीन ।
कलम चले पर इस तरह, पीड़ित करे यकीन॥

रिश्तों के पर्वत किए, हरियाली से हीन ।
चाह रहा शीतल हवा, कैसा मूरख दीन॥

बंधन तो था जनम का, हुआ बीच में भंग ।
कैसे चलता दूर तक, धुंध-धूप का संग ॥

पश्चिम की आँधी चली, भूले पनघट गीत ।
गमलों में तरु सज रहे, बट-पीपल भयभीत ॥

गहरे पानी रत्न सब, लूट रहे दे घाव ।
केवट भी शामिल हुआ, क्यों न डूबती नाव ॥

पाला रिश्तों पर पड़ा, अपने होते गैर ।
फटी बिवाई हर तरफ, सब देखें निज पैर ॥

बहता या ठहरा हुआ, दलदल अथवा सूम ।
उतरो दरिया में तभी, पहले हो मालूम ॥

मोह भरा आकाश है, काम चलाता तीर ।
उफन रही मद की नदी, कैसे ठहरे पीर ॥
 
बदली बस्ती, घर, डगर, बदल गया व्यापार ।
सपनों तक में घुस गया, अब तो यह बाजार ॥

पट्टी बाँधे आँख पर, चले जा रहे लोग ।
अंध-भक्ति का बढ़ रहा, खतरनाक अब रोग॥

भूख, गरीबी, यातना, थी पहले भी गाँव ।
पर चमकीले लोग थे, ना जहरीली छाँव ॥

अँधियारे, दुर्गन्ध को, ढोता हिंदुस्तान ।
खुशी, प्यार, सुख तड़पते, फिर भी देश महान ॥

आए दिन अब हादसे, मना रहे त्यौहार ।
प्यार हुआ है बेअसर, असरदार तलवार ॥

बड़ा गहन है यह विषय, सोचो करो विचार ।
कुछ रोटी से खेलते, कुछ भूखे लाचार ॥

क्या होगा उस ज्ञान से, जो देता अभिमान ।
कीट समझता दीन को, दे न श्रेष्ठ को मान ॥

शिक्षा वह बेकार है, देती केवल अर्थ ।
भटकाती मन को सदा, जीवन जाता व्यर्थ ॥
 
-सी एम उपाध्याय. कोटा 

अशोक कुमार रक्ताले के दोहे

दोपहरी सी हो गई, उस दिन ढलती साँझ |
सुमन खिलाकर भी हुआ, जिस दिन उपवन बाँझ ||

दबी हुई इक चाह थी, या थी उसकी भूल |
पनपाया फिर ओस ने, काँटों भरा बबूल ||

लोभ बढे रज भाव से, मन में ले विस्तार |
धूल डालता सत्य पर, बढ़ता स्वार्थ विकार ||

शब्द-शब्द मुखरित करे, छंद-छंद में प्यार |
घने नीम की छाँव से, बढकर गहन विचार ||

मन ही कहता आस रख, मन ही खोता धीर |
दुर्गम पथ लम्बा सफ़र, जब देते हैं पीर ||

मन के मैले पृष्ठ की, धूल उडाता कौन |
खामोशी मैंने धरी, तुमने साधा मौन ||

सीधी सच्ची सोच हो, उत्तम रहें विचार |
वहाँ मुसीबत हो नहीं, सिर पर कभी सवार ||

माँ वाणी माँ निर्मला, माँ कमला सी जान |
बुद्धि धन सब मातु है, कर माँ का गुणगान ||

स्वार्थ हथौड़ा जब चले, टूटे प्रेम लकीर |
रिश्तों की दौलत घटे, खोता मन का धीर ||

बना शाख को पालना, हरित पर्ण की सेज |
वृक्ष पके फल को रखे, कब तक भला सहेज ||

आशा है विश्वास है, प्रेम समर्पण त्याग |
माँ सद्गुण की खान है, माँ से रख अनुराग ||

धर्म नाम को भी गरल, कर देते कुछ लोग |
पनपे मन में द्वेष जब, लगे स्वार्थ का रोग ||

मानव मन में लोभ की, खडी हुई दीवार |
और उसी की ओट में, पनपा भ्रष्टाचार ||

दर्द पराया जान कर, बन जाए अनजान |
मानवता जिसमें नहीं, वह कैसा इंसान ||

तुझसे पाए पुष्प पर, बैठी थी जो भोर |
प्रेम दिवस देकर गई, नचा गई मन मोर ||

दिनकर को ठगने लगी, कोहरे की दीवार |
पुष्प सुवासित भीगकर, बाँट रहे हैं प्यार ||

अकुलाई प्यासी गई, नदिया रही उदास |
तोड़ दिया संसार ने, जब उसका विश्वास ||

पुष्प गंध मन मोहिनी, नयन सोहते रंग |
पाकर जूही पर चढ़ें, कतिपय दुष्ट भुजंग ||

अशोक कुमार रक्ताले
५४, राजस्व कॉलोनी, उज्जैन. (म.प्र.)








Monday, August 17, 2015

पीयूष कुमार द्विवेदी 'पूतू' के हरिगीतिका छंद

जिस देश का गुणगान करते देव भी थकते नहीं,
समतुल्य इसके देश कोई और हैं मिलते नहीं।
प्रभु ने लिया अवतार आकर भू अतीव विशेष है,
यह सर झुका जिसके लिए वह मंजु भारत देश है॥1॥

है सभ्यता-संस्कृति अमर गौरवमयी इतिहास भी,
सबसे प्रथम हमको हुआ सद्ज्ञान का आभास भी।
नदियाँ बहातीँ गाय थन से दुग्ध का भंडार था,
खुशहाल जीवन का यही सुंदर सरल आधार था॥2॥

गोवत्स आते काम खेती हेतु जो वरदान थे,
उनकी वजह से भूमिसुत अतिशय हुए धनवान थे।
रक्षा करें हम गाय की अपना सदा मन-प्राण दें,
देखो नरेश दिलीप का सुंदर अतीव प्रमाण दें॥3॥

जिस भूमि भारत में हुआ था गाय का पूजन कभी,
सौभाग्य अपना मानकर सेवार्थ प्रस्तुत हो सभी।
रोटी प्रथम अर्पित करें हम नित्य का यह काम था,
यदि गाय को आराम होता तो स्वयं आराम था॥4॥

पर देखिए कैसा लगा अब तो घिनौना वक्त है,
हालात गो माँ के निरखकर खौलता ना रक्त है?
गो मातु पर होने लगें अब घोर अत्याचार हैं,
क्यों शर्म आती है नहीं कितने घृणित व्यवहार हैं॥5॥

संकल्प लें आओ सदा गो मातु का रक्षण करें,
दें दंड उनको घोर जो गो मांस का भक्षण करें।
इस हेतु गर मरना पड़े तो बंधु पीछे मत हटो,
कर्तव्य अपना जानकर जी जान से पथ में डटो॥6॥

प्राचीन संस्कृति है निराली स्वर्ग का प्रतिविम्ब है,
अब तक धरा जिस पर टिकी वह गाय ही अवलम्ब है।
हम मानते बस पशु नहीं गो मातु का दर्जा दिया,
ग़मगीन हो माता अगर तो दग्ध होता है हिया॥7॥

है देह सदियों से ऋणी गो मातु का हम ध्यान दें,
चुकता करें उसको पुनः खोया हुआ सम्मान दें।
फिर गर्व से हम कह सकेंगे देश अपना भिन्न है,
रहते वहाँ पर हम जहाँ ना गाय माता खिन्न है॥8॥

घबरा नहीं माता तुम्हारा आ गया सुखमय समय,
विचरण करो स्वच्छंद होकर हर जगह होकर अभय।
'पूतू' कलम अपनी उठा रक्षार्थ हम प्रण लें चुके।
निज साँस रुक जाए भले अभियान अपना मत रुके॥9॥

-पीयूष कुमार द्विवेदी 'पूतू'

ग्राम-टीसी,पोस्ट-हसव­ा,जिला-फतेहपुर (उत्तर प्रदेश)-212645