विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Sunday, June 5, 2016

झूठों का गुणगान - (प्रो.) डॉ.शरद नारायण खरे

गहन  तिमिर का दौर है, घबराता आलोक। 
हर्ष खुशी पर है ग्रहण, पल पल बढ़ता शोक।।
हवा चल रही विष भरी, संशय का संसार।
रिश्ते नाते बन गये, आज एक व्यापार।।
ताकतवर की जीत है, झूठों का गुणगान।   
जो जितना कपटी हुआ, उसका उतना मान।।
गणित वोट का हल करो, तब पाओगे जीत।
सत्य, न्याय , ईमान का, कौन सुने अब गीत।।
लोकतंत्र में लोक की, उधड़ रही है खाल। 
तंत्र हो गया भोथरा, प्रहरी खाते माल।।
राहत पहुँचाने जुटें, जब सरकारी वीर।  
रूखा सूखा बाँटकर, खा जाते खुद खीर।।
फैशन के रंग में रंगी, देखो अब तो नार। 
अपना बदन उघाडक़र, करियर रही सँवार।।
मंदिर मस्जि़द एक हैं, अल्लाह ईश समान।
फिर कटुता किस बात की, क्यों लड़ता इंसान।
वह उतना ऊपर उठा, जो जितना मक्कार।
सीधा सच्चा पा रहा, अब तो नियमित हार।।
कर्मठता गुम हो गई, शेष दिखावा आज।
चमक दमक में खो गया, देखो आज समाज।।

-(प्रो.) डॉ.शरद नारायण खरे

शासकीय महिला महाविद्यालय, मण्डला, म.प्र.
9425484382

गए ये दीमक चाट - रमेश सिद्धार्थ

जात, पात, अरु धर्म पर, देखे विकट कलेश।
सुधेरेगा किस वक्त में, उ$फयह भारत देश।।
मंदिर मुद्दा आ रहा, नेताओं को रास।
साधू तो पाँसे बने, चौपड़ सम हैं न्यास।।
सत्ता की सीढ़ी बने, धर्म, जात अरु पात।
संख्याओं के खेल से, देते सब को मात।।
चहुँ दिस टूटे बुत दिखें, जले हुए अखबार।
घोटालों की पोटली, झूठों के अम्बार।।
मंत्री पद होने लगा, अब सचमुच बेजोड़।
सुख सत्ता के साथ में, जोड़ो लाख करोड़।।
रहे सदा से लूटते, जग को अंधा मान।
न्याय तराजू में तुले, अब मुश्किल में जान।।
कुछ ने गुपचुप लूट की, कुछ ने बंदरबाँट।
जड़ दुखियारे देश की, गए ये दीमक चाट।।
ऊँट अचम्भे में पड़े, जैसे देख पहाड़।
हर घोटालेबाज को, वैसी लगे तिहाड़।।
कल थी मन में आस्था, नैतिकता, विश्वास।
आज वहाँ आसीन हैं, स्वार्थ, भोग, विलास।।
खादी, कुर्ते हैं वही, बदल गए बस माप।
सत्य, अहिंसा, न्याय के, भाषण मात्र प्रलाप।।

-रमेश सिद्धार्थ

हाऊसिंग बोर्ड कॉलोनी, रेवाड़ी
9812299221

नेता हुए दलाल - राहुल गुप्ता

गाँधी जी के देश में, कैसा मचा बवाल।
गुंडे ठेकेदार हैं, नेता हुए दलाल।।
रस्ते कठिनाई भरे, मंजिल हो गयी दूर।
महँगाई के दौर में, सपने चकनाचूर।।
रोटी कपड़ा दाल की, बातें हुयी हजार।
नेताओं को भा रहा, वोटों का व्यापार।।
भूखे को कब मिल सके, रोटी चावल दाल।
नेता जी की पाँत में, मुर्गे हुए हलाल।।
सूख चली यमुना नदी, सूख चले हैं घाट।
कैसे यमुना फिर बहे, देख रहे सब बाट।।
यमुना मंगलदायनी, समझो इसकी पीर।
करो जतन जी जान से, शुद्ध कराओ नीर।।
दागी बागी भ्रष्ट बद, राजनीति की शान।
गुंडई नंगई लुच्चई, बनी नई पहचान।।
नेता भिखमंगे हुए, मतदाता बेज़ार।
वादों के असवाब से, अटा पड़ा बाज़ार।
मुझको ही मत दीजिये, मैं ही तारनहार।
कहते फिरें चुनाव में, नेता जी हर बार।
मन्दिर में गाते भजन, मन रत्ना की आस।
कलयुग में ऐसे मिले, कितने तुलसीदास।।

- राहुल गुप्ता

 अध्यक्ष, संकेत रंग टोली, लोहवन, मथुरा
9412538550

अधरों पर मुस्कान - अंसार 'कम्बरी'

मन से जो भी भेंट दे, उसको करो कबूल।
काँटा मिले बबूल का, या गूलर का फूल।।
सागर से रखती नहीं, सीपी कोई आस।   
एक स्वाति की बूँद से, बुझ जाती है प्यास।।
प्यासे के जब आ गयी, अधरों पर मुस्कान।
पानी-पानी हो गया, सारा रेगिस्तान।।
रातों को दिन कह रहा, दिन को कहता रात।
जितना ऊँचा आदमी, उतनी नीची बात।।
जब तक अच्छा भाग्य है, ढके हुये हैं पाप। 
भेद खुला हो जायेंगे, पल में नंगे आप।।
तुम्हें मुबारक हो महल, तुम्हें मुबारक ताज। 
हम फकीर हैं 'कम्बरी', करें दिलों पर राज।।
हमको ये सुविधा मिली, पार उतरने हेतु।
नदिया तो है आग की, और मोम का सेतु।।
पंछी चिंतित हो रहे, कहाँ बनायें नीड़।   
जंगल में भी आ गयी, नगरों वाली भीड़।।
जाने कैसी हो गयी, है भौरों से भूल।  
कलियाँ विद्रोही हुयीं, बा$गी सारे फूल।।
हवा ज़रा सी क्या लगी, भूल गयी औकात।
पाँवों की मिट्टी करे, सर पर चढक़र बात।।

-अंसार 'कम्बरी'

ज़फर मंजि़ल,11/116,
ग्वाल टोली, कानपुर

गाँव शहर में जा बसा - यतीन्द्रनाथ 'राही'

आँगन सूना छोडक़र, सपने छोड़ अनाथ। 
गाँव शहर में जा बसा, कुछ सपनों के साथ।।
आँसू पीकर माँ पड़ी, सपन समेटे बाप।
पूत अकेला शहर में, सडक़ रहा है नाप।।
हाथ झटक चम्पा चली, बूढ़ा हुआ रसाल।
वृद्धाश्रम के द्वार पर, खड़े करोड़ी लाल।।
सर-सरिता-बादल पिये, फिर भी रहे उदास।
अब इस आदम की कहो, कहाँ बुझेगी प्यास।
खोज रहे हो तुम जिसे, ऐसे खड़े उदास।
वह हंसों का गाँव था, अब यह काग निवास।।
पत्थर को अर्पित किए, अक्षत-चंदन-फूल।
पर जीवित इन्सान को, बोये पग-पग शूल।।
बाप रोग से मर गया, पूत कजऱ् के भार।
बची रोटियाँ खा गए, बामन-धूत-लबार।।
नन्हे दीपक ने नहीं, पल भर मानी हार।
रहा रात भर काटता, तिल तिल कर अँधियार।
हमें न आया आम को, कहना कभी बबूल।
इसीलिए फुटपाथ पर, रहे छानते धूल।।
टूट चुके कब तक सहें, ये दंशों पर दंश।  
करना है निर्मूल अब, यह साँपों का वंश।।

-यतीन्द्रनाथ 'राही'

ए-54, रजत विहार, होशंगाबाद रोड़, भोपाल-26
9425016140

किसकी बिखरी भावना - अशोक 'अंजुम'

किसकी बिखरी भावना, किसका टूटा नीड़।
नहीं समझती आँधियाँ, नहीं जानती भीड़।।
मिले सिपाही चोर से, $गायक हुए सबूत। 
दामन के धब्बे मिटे, न्याय हुआ अभिभूत।।
वही आज लेकर मिले, शीशी भर तेजाब।  
कल तक कसमें प्यार की, खाते रहे जनाब।।
अरी व्यवस्था क्या कहें, तेरा नहीं जवाब। 
जिनको पानी चाहिए, उनको मिले शराब।।
इस जनवादी सोच का, चित्र अनोखा देख।
पाँच सितारा में लिखें, होरी पर आलेख।।
पूछ रही हैं मस्जि़दें, मन्दिर करें सवाल।  
भला हमारे नाम पर, क्यों है रोज बवाल।।
मानवता की देह पर, देख-देखकर घाव।  
हम कबीर जीते रहे, सारी उम्र तनाव।।
घायल सब आदर्श हैं, सच है मरणासन्न।   
भरा-भरा याचक लगे, दाता हुआ विपन्न।।
डॉलर मद में चूर है, रुपया हुआ निढ़ाल। 
दिल्ली के दरबार में, बिखरे पड़े सवाल।।
मुट्ठी-भर थी चाँदनी, गठरी-भर थी धूप।
अंजुम जी प्यारा लगा, जीवन का हर रूप।।

-अशोक 'अंजुम'

संपादक, अभिनव  प्रयास, अलीगढ़
9258779744

जीवन का भूगोल - म.ना.नरहरि

राशन, कपड़े, पुस्तकें, चुभते गहरे डंक।   
बार-बार वेतन गिना, बढ़ा न फिर भी अंक।।
सब$क दिया जब यार ने, खुद हो गई तमीज़।
अपनी कहकर ले गया, मेरी नई कमीज़।।
राजपथों पर खो गया, जीवन का भूगोल।
खा$का सब पूरा हुआ, खास बात है गोल।।
साँस हुई शतरंज सी, कभी शह कभी मात। 
रोज बदलती रंग है, मुसीबतों की रात।।
दफ़्तर में कलमें बिकें, भाव बहुत है तेज़।    
हर फाइल है रेंगती, मेज़-मेज़ दर मेज़।।
हस्ताक्षर बेचा नहीं, ऊँचा रहा मिज़ाज।   
गाँव लौटना तय हुआ, परसों कल या आज।।
आँखों से आँखें मिला, मुझे पुकारा मीर। 
आँख झुका मैंने कहा, कहिये मुझे कबीर।।
बरगद बाबा मौन हैं, पवन हुई नाराज़।  
परत-परत हो खुल गई, संबंधों की प्याज़।।
झर-झर झरती रात से, दुखी नगर का भोर।
रस्ते बागी हो गए, सडक़ें गोता $खोर।।
दम्पति में हलचल हुई, बिखरा सब घर-बार।
चीखें सब सुनती रहीं, कान जड़ी दीवार।।

-म.ना.नरहरि

आकिॢड-एच, वैली ऑफ क्लावर्स
ठाकुर विलेज, कांदिवली (पूर्वी), मुंबई-400101     

Saturday, June 4, 2016

प्यासा पानी से मरे - शशिकांत गीते

अपना सब कुछ आज जो, कल जाएगा डूब|
प्यासा पानी से मरे, ये किस्सा भी खूब ||

अगुआ सारे व्यस्त हैं, झंझट लेगा कौन|
रजधानी  में बज रहा, खन-खन करता मौन||


पैसे से पैसा बना, सटका धन्ना सेठ|
भूखे, भूखे ही रहे, हाथों टूटी प्लेट||


पानी तो आया नहीं, डूब गए संबंध|
बातों से आने लगी, मारकाट की गंध||

कैसा रोना पीटना, कैसा हाहाकार|
नई सदी की नीव के, तुम हो पत्थर यार||

सूख गई है मंजरी, कटे किनारे पेड़|
प्यास किनारे पर पड़ी, उठती हृदय घुमेड||

सड़कें ही क्या जिन्दगी, अपनी खस्ता हाल|
पानी, बिजली भूख के, थककर चूर सवाल||

बड़ा कठिन है तैरना, धारा के विपरीत|
कूड़ा बहता धार में, तू धारा को जीत||

लोकतंत्र के नाम पर, कंप्यूटर रोबोट|
बटन दबे औ छापते, पत-पत अपने वोट||

-शशिकांत गीते
खण्डवा, मध्यप्रदेश

खुला हृदय का द्वार - चन्द्रसेन विराट

दस्तक दी जब प्रेम ने, खुला हृदय का द्वार।
पिछले दरवाजे अहम्, भागा खोल किवाड़।।

जो मेरा वह आपका, निर्णय हो अभिराम।
मिले हमारे प्रणय को, शुभ परिणय का नाम।।

तन करता इकरार पर, मन करता इनकार।
 देहाकर्षण उम्र का, वह कब सच्चा प्यार।।

देह रूप या रंग में, किसको कह दूँ अग्र।
सच तो यह है, तुम मुझे, सुन्दर लगी समग्र।।

अलग थलग होकर रहे, खुद को लिया समेट।
किंतु तुम्हारी नज़र ने, हमको लिया लपेट।।

तुमने बत्ती दी बुझा, जब हम हुए समीप।
लगा देव की नायिका, बुझा रही हो दीप।।

भरा रहा है प्रेम से, सतत आयु का कोष।
उससे मिली जिजीविषा, जीने का संतोष।।

उथली भावुकता भरा, सुख सपनों का ज्वार।
देहाकर्षण है महज, कच्ची वय का प्यार।।

सुन तो लेते हैं उन्हें, लोग न करते गौर।
जिनकी कथनी और है, लेकिन करनी और।।

गिनते हैं जब नोट सब, धन-अर्जन की होड़।
 ऐसे मे कवि कर रहा, मात्राओं का जोड़।।

-चन्द्रसेन विराट

121, बैकुंठ धाम कॉलोनी, इन्दौर
9329895540