विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Friday, August 21, 2015

सुनो मेरी कहानी ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

मैंने कुछ भी नहीं जोड़ा न ही कुछ कम किया , उस बेचारी डेमोक्रेसी नाम की महिला की बात सच सच लिख दी। क्या लिखता कौन दोषी है कौन निर्दोष , ये पढ़ने वालों पर छोड़ दिया , मुझे समझ नहीं आया इसको क्या शीर्षक दूं , इसलिये बिना किसी शीर्षक ही कहानी लिख दी। पढ़ते ही वो गंभीर हो गये , कहने लगे समस्या बहुत विकट है , तुम नहीं जानते बिना शीर्षक की कहानी का क्या हाल होता है। शीर्षक ही तो पढ़ने को मज़बूर करता है। बिना शीर्षक की कहानी तो कटी हुई पतंग की तरह है , छीना झपटी में ही फट जाती है , किसी के भी हाथ नहीं लगती। या जिसके हाथ लगे वही मनमानी कर लेता है उसके साथ। ऐसी पतंग से कोई सहानुभूति नहीं जताता , क्या तुम चाहते हो तुम्हारी कहानी की ऐसी दशा हो देश की जनता जैसी। नहीं चाहते तो जाओ कहीं से कोई लुभावना सा शीर्षक तलाश करो जो बाज़ार में बिक सकता हो , फिर उसको कई गुणा दाम पर बेचो। ठीक वैसे जैसे मोदी जी का स्लोगन , अच्छे दिन आने वाले हैं , ऐसा भाया जनता को कि उनको जितना मांगते थे उससे भी बढ़कर बहुमत मिल गया। ये सबक अरविन्द केजरीवाल को भी समझ आया और नतीजा देख लो , कहां उनको उम्मीद थी इतनी सफलता की। जब तक खुद अपनी कीमत बड़ा चढ़ा कर नहीं बताओगे , कोई इक धेला भी नहीं देगा। तुम जानते हो लोग अपनी आत्मकथा औरों से लिखवाते हैं , सभी को कहां लिखना आता है , ऐसे लेखक अपनी कीमत पहले वसूल लेते हैं दोगुनी , क्योंकि उनका नाम तो होता नहीं लिखने वाले के रूप में। अपने दुखों को बेचना तो बड़े बड़े लेखकों का काम रहा है , ऐसी मनघड़ंत कहानियां पुरुस्कार अर्जित किया करती हैं। इस तुम्हारी कहानी में न कहीं कोई नायक है न ही कोई खलनायक ही , कोई नाटकीयता भी नहीं , कोई सस्पेंस भी नहीं। कोई प्रेम प्रसंग नहीं , न ही अवैध संबंध की ही बात। सब किरदार जैसे आस पास देखे हुए से लगते हैं , लोग , पाठक-दर्शक तो जो नहीं होता वही तलाश करते हैं। देख लो इन दिनों फिल्मों में नायक वो वो करते हैं जो नहीं किया जाना चाहिए , फिर भी लोग वाह-वाह करते हैं। अब तो खलनायक ही लोगों को अधिक भाते हैं। हर कहानी में ये सभी मसाले होने ज़रूरी हैं , वरना कहानी नीरस हो जाती है। लोग फिल्म देखते हैं या कहानी पढ़ते हैं तो रोमांच के लिए , न कि किसी विषय पर चिंतन करने को। ये काम सभी औरों के लिए छोड़ चुके हैं , यार छोड़ , मस्त रह , मौज मना , ये सोच बना ली गई है।
बिना मिर्च मसाले का फीका खाना तो लोग मज़बूरी में डॉक्टर के कहने पर भी नहीं खाते आजकल , तुमने कभी होटल रेस्टोरेंट का खाना खाया है , बड़े बड़े पांचतारा होटल का खाना न भी खाया हो , फिल्मों में , टीवी सीरियल में तो देखा होगा। कितना सुंदर लगता है , सजा कर परोसा जाता है , किसकी मज़ाल है जो उसको अस्वादिष्ट बता दे। कोई बताये तो लोग कहते उसको मालूम ही नहीं कांटिनेंटल खाना किसे कहते हैं। तुम्हारी कहानी कोई स्कूल की किताब में शामिल थोड़ा है जो पढ़नी ही होगी , कोई मुख्यमंत्री भी नहीं रिश्तेदार कि उसके प्रभाव से प्रकाशक तगड़ी रॉयल्टी देकर भी छापना चाहे। कहानी का नाम ही ऐसा रखो कि लगे कि ऊंचे दर्जे की कहानी है , अक्सर लोग जो कहानी समझ नहीं पाते उसको ऐसी समझते हैं। इक और बात जान लो , जिन कहानियों का प्रचार किया जाता है सच्ची घटना या किसी के जीवन पर है , उनमें सबसे ज़्यादा झूठ होता है। झूठ को कल्पना से मिला कर उसको बेचने के काबिल बनाया जाता है , कहानी का स्वरूप समय के साथ बदलता रहता है , अपनी इस कहानी को आधुनिक रूप दे दो , अच्छे अच्छे डॉयलॉग शामिल करो , खुद न लिख सको तो डॉयलॉग राइटर से लिखवा लो , या चाहो तो फिल्मों से टीवी सीरियल से अथवा पुरानी किताबों से चोरी कर लो , कोई नहीं रोकने वाला। जहां कहानी दुःख दर्द से बोझिल होती लगती है , वहां साथ में थोड़ा हास्य रस का समावेश कर दो , जैसे अभिनेता चुटकुले सुना देते हैं हंसाने को। शृंगार रस की कोई बात ही नहीं कहानी में , जैसे भी हो कोई दृश्य ऐसा हो कि पाठक - दर्शक फ़ड़फ़ड़ा उठें। कहानी में सभी की रूचि का ध्यान रखना है , आगे क्या होगा ये प्रश्न मत छोड़ो , अंत ऐसा हो कि लोग वाह वाह कह उठें। ऐसा अंत सभी गलतियों को छुपा लेता है। अब बाकी रह जाता है किताब को या कहानी को आकर्षक ढंग से पेश करना , तो ये काम तुम संपादकों पर छोड़ दो , वे कहानी में से निकाल कर कुछ खूबसूरत शब्द ऐसे मोटे मोटे अक्षरों में छापेंगे कि देखने वाला पढ़ने को उत्सुक हो जाये। जैसी मैंने समझाया वैसी कहानी लिखो तभी उसको अख़बार , पत्रिका , प्रकाशक छापेंगे। लगता है मेरी कहानी अनकही अनसुनी ही रहेगी।

-डॉ.लोक सेतिया

Thursday, April 2, 2015

बाबूजी का भारतमित्र पत्रिका का दोहा विशेषांक


पत्रिका "बाबूजी का भारतमित्र" का सितंबर 2012 अंक (दोहा विशेषांक) के रूप में प्रकाशित हुआ है| इसमें सौ से भी अधिक दोहकारों के दोहों के अलावा दोहे पर बहुत ही स्तरीय आलेख प्रकशित हुए हैं| डॉ. अनंतराम मिश्र का आलेख "दोहे की आत्मकथा" एक बेहतरीन आलेख है| वहीँ देवेन्द्र शर्मा इन्द्र, निदा फ़ाज़ली, पदम्भूषण नीरज, चन्द्रसेन विराट, दिनेश शुक्ल, राधेश्याम शुक्ल, कुंदन सिंह सजल, हस्तीमल हस्ती जैसे वरिष्ठ दोहकारों के साथ-साथ नयी पीढ़ी के भी दर्जनों दोहकारों को इसमें स्थान मिला है|
कुल 128 पृष्ठ वाले इस विशेषांक की कीमत भी नाममात्र ही है और इसे ऑनलाइन भी पढ़ा जा सकता है| पत्रिका का आजीवन शुल्क मात्र 1100 रूपये है| 

पत्रिका नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके ऑनलाइन भी पढ़ी जा सकती है-http://www.scribd.com/doc/105926320/Babu-Ji-Ka-Bharatmitra-Doha-Viseshank

Tuesday, June 5, 2012

नागफनी के फूल की समीक्षा

रघुविन्द्र यादव के दोहा संग्रह नागफनी के फूल की श्रीमती देवी नागरानी द्वारा की गई समीक्षा वेब पत्रिका साहित्य कुञ्ज में प्रकाशित हुई है|
श्री यादव की दोहा कृति की इससे पहले भी अनेक विद्वानों द्वारा समीक्षा की जा चुकी है, जो विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकशित हुई हैं| इस कृति में 424 धारदार दोहे शामिल किये गए हैं| पुस्तक का प्रकाशन आलोक प्रकाशन, नीरपुर, नारनौल द्वारा किया गया है और इसकी कीमत मात्र एक सौ रूपये राखी गई है ताकि आम पाठक भी इसे खरीद सके|
डॉ. रामसनेही लाल शर्मा यायावर, अरुण नैथानी, सत्यवीर नहाडिया, डॉ.सुशिल शीलू, रश्मि और देवी नागरानी द्वारा इस कृति की समीक्षा की जा चुकी है|
नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं|
http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/D/DeviNangrani/nishthavaan_srijan_sadhanaa_Nagfani_ke_phool_Sameeksha.htm

रघुविन्द्र यादव के दोहा संग्रह नागफनी के फूल की श्रीमती देवी नागरानी द्वारा की गई समीक्षा वेब पत्रिका साहित्य कुञ्ज में प्रकाशित हुई है|
श्री यादव की दोहा कृति की इससे पहले भी अनेक विद्वानों द्वारा समीक्षा की जा चुकी है, जो विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकशित हुई हैं| इस कृति में 424 धारदार दोहे शामिल किये गए हैं| पुस्तक का प्रकाशन आलोक प्रकाशन, नीरपुर, नारनौल द्वारा किया गया है और इसकी कीमत मात्र एक सौ रूपये राखी गई है ताकि आम पाठक भी इसे खरीद सके|
डॉ. रामसनेही लाल शर्मा यायावर, अरुण नैथानी, सत्यवीर नहाडिया, डॉ.सुशिल शीलू, रश्मि और देवी नागरानी द्वारा इस कृति की समीक्षा की जा चुकी है|
नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं|
http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/D/DeviNangrani/nishthavaan_srijan_sadhanaa_Nagfani_ke_phool_Sameeksha.htm

Monday, April 9, 2012

दैनिक ट्रिब्यून का सम्पादकीय 8 अप्रैल

दैनिक ट्रिब्यून का 8 अप्रैल का सम्पादकीय जिसमें रघुविन्द्र यादव का एक दोहा कोट किया गया है और शीर्षक भी उन्हीं के दोहे की पंक्ति से लिया गया है।

दूध-दही मिलता नहीं, मिलती खूब शराब!

Posted On April - 7 - 2012
हरियाणा के करनाल जनपद स्थित गांव पाधा से एक सुकूनभरी खबर आई है कि विवाहोत्सव के दौरान शराब पीकर ऊधम मचाने वालों को जुर्माना लगेगा। पंचायत ने अभूतपूर्व फैसला लेकर शराब पीकर ऊधम मचाने वाले पर ग्यारह हजार जुर्माना लगाने का फैसला किया है। इतना ही नहीं, कानफोड़ू संगीत पर भी रोक लगाने का फैसला पंचायत ने किया है। अकसर देखने में आया है कि विवाहोत्सवों में शराब पीकर भड़कीले गीत-संगीत पर गुंडागर्दी करने का लाइसेंस पाना कुछ लोग अपना अधिकार समझ लेते हैं। सामान्य तौर पर विवाह को शुभकार्य मानकर लोग इसके नाम पर की जाने वाली गुंडागर्दी का विरोध नहीं करते लेकिन अब जबकि पानी सिर के ऊपर से गुजरने लगा तो पाधा गांव की पंचायत को अनूठा व आवश्यक कदम उठाने को बाध्य होना पड़ा। विश्वास से कहा जा सकता है कि इससे हरियाणा की अन्य पंचायतें भी प्रेरणा लेंगी। यदि ऐसा नहीं होता तो हरियाणा की प्रगति पर अपसंस्कृति का दाग यूं ही लगता रहेगा। पंचायत की इस बात की तारीफ करनी होगी कि उसने व्यक्तिगत आज़ादी के बजाय सार्वजनिक जीवन में व्यवधान डालने वालों पर प्रतिबंध लगाने की पहल की। यानी कोई पीना चाहे तो पिये लेकिन दूसरों की आज़ादी व निजता को प्रभावित न करे। वाकई शराब पीने और सार्वजनिक जीवन में व्यवधान डालने की प्रवृत्ति बहुत तेजी से बढ़ रही है। इससे जहां अपराधों में वृद्धि हुई, वहीं कई तरह की दुर्घटनाओं-झगड़ों में भी इजाफा हुआ है। हरियाणा में नशाखोरी की इस घातक प्रवृत्ति पर तंज़ करते हुए हरियाणा के राजकवि उदयभानू हंस सटीक टिप्पणी करते हैं :-

मदिरा के दुर्गुणों का नहीं कोई हिसाब,
आस्तीन का यह सांप करे खाना-खराब।
एक व्यक्ति नहीं इससे बिगड़ता केवल,
परिवार को कर देती है बरबाद शराब।
दूध-दही के खाने के लिए मशहूर हरियाणा में विकास व समृद्धि की बयार के साथ जो क्लब संस्कृति पनपी है उसने शराब के प्रसार में बेतहाशा वृद्धि की है। पीने वालों को तो बस पीने का बहाना चाहिए। खुशी का मौका आया नहीं कि बोतलें खुलनी शुरू हो जाती हैं। दूध-दही के प्रयोग के लिए चर्चित हरियाणा में आज शराब की नदियां बहने लगी हैं। सरकार की राजस्व जुटाने की लालसा और मुनाफे के मोटे धंधे ने इसके प्रचलन को बढ़ावा दिया है। दूध-दही मिले न मिले शराब कोने-कोने में मिल जाएगी। शराब माफिया ने इसकी दुकानें गांव-गांव तक पहुंचा दी हैं। ग्रामीण यदि विरोध करते भी हैं तो शराब माफिया अपने राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल करके गांवों की आवाज़ दबाने में कामयाब हो जाता है। शराब नई पीढ़ी को घुन की तरह खाने लगी है। इस नशे को पूरा करने के लिए शराबी अपनी जमीन व अन्य संपत्ति बेचने में भी गुरेज नहीं करते। गांवों में शराब-संस्कृति के सिर चढ़कर बोलने से व्यथित कवि रघुविन्द्र यादव सटीक बात कहते हैं :-
केशव तेरे गांव की, हालत हुई खराब,
दूध-दही मिलता नहीं, मिलती खूब शराब।
पता नहीं इंसान ने अपने सुख-दु:ख की अभिव्यक्ति का माध्यम क्यों शराब को बना लिया है। ऐसे में सवाल उठता है कि जो लोग शराब नहीं पीते क्या वे अपने सुख-दु:ख का इज़हार नहीं कर पाते? सुख-दु:ख का अहसास तो स्त्रियां भी करती हैं तो इसका निष्कर्ष यह निकाला जाये कि उन्हें भी इसी तरह अपनी अभिव्यक्ति देनी चाहिए? सही मायनों में हम शराब पीने का बहाना तलाशते हैं। सबसे भयावह पहलू यह है कि बच्चे भी बड़ों को देखकर इसका अनुसरण करने लगते हैं। आंकड़े बता रहे हैं कि छात्रों में भी नशाखोरी की प्रवृत्ति का ग्राफ बढऩे लगा है। किसी राष्ट्र की युवा पीढ़ी का नशे से खोखला होना उसकी प्रगति पर सवालिया निशान लगाता है। डॉ. बलजीत एक कड़वे भावार्थ का बोध कराते हैं :-
मदिरा में डूबी सखे, अब तक इतनी जान,
डुबो न पाया आज तक, कोई सिंधु महान।
वास्तव में हरियाणा में पांव पसार रही अपसंस्कृति को दूर करने की पहल ग्राम पंचायतों को ही करनी होगी। राजनेताओं के फैसले तो वोट के समीकरणों पर आधारित रहते हैं। इस दिशा में खाप-पंचायतें न केवल हरियाणा बल्कि सारे देश को रचनात्मक संदेश दे सकती हैं। आज हरियाणा खेल से लेकर विकास के दस्तावेजों में नई इबारतें लिख रहा है। लेकिन कतिपय सामाजिक विद्रूपताएं उसकी ख्याति के चांद पर दाग लगा रही है। अब चाहे ऑनर किलिंग के मामले हों, भू्रणहत्या व लिंगानुपात की गहराती खाई हो अथवा पांव पसारती शराब-संस्कृति हो, ग्राम पंचायतों को रचनात्मक आंदोलन करने की जरूरत है। गांवों से उठी बदलाव की बयार पूरे प्रदेश की आवाज़ बन सकती है, बशर्ते ईमानदार आगाज़ हो सके। कमोबेश, यही स्थिति नशाखोरी की बढ़ती प्रवृत्ति की है। स्वयंसेवी संगठन इसमें निर्णायक भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं। सदियों पहले कबीर भी शराब के अवगुणों के बारे में बता चुके हैं :-
अवगुण कहूं शराब का, आपा अहमक होय,
मानुष से पशुआ भया, दाम गांठ से खोय।
हकीकत यह है कि सरकारों के दोगले व्यवहार के कारण शराबखोरी की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही है। भारी राजस्व की लालसा में देसी-विदेशी शराब के कारोबार के लिए दरवाजा खोलने वाली सरकारों ने भारत को मदिरापान का खुला बाजार बना दिया है। माना कि शराब से सरकार को मोटी आय होती है, लेकिन कितनी बड़ी कीमत देश को चुकानी पड़ती है? फिर इससे होने वाली बीमारियों पर सरकारी अस्पतालों पर सरकार को कितना पैसा खर्च करना पड़ता है? हमारे तथाकथित नायक, मसलन फिल्मों के कलाकार व क्रिकेटर निर्लज्जता से शराब का विज्ञापन करके इसे महिमामंडित करते हैं। काश! ये सचिन से सबक लेते जिसने 20 करोड़ के विज्ञापन इसीलिए ठुकरा दिये थे। जनता को राजनेताओं को कवि शायक के शब्दों में समझाना चाहिए :-
तेरे नगर में मदिरा की नदियां झरझर बहती हैं,
मेरे गांव में आकर देख, सूखा जोहड़ पायेगा।

दैनिक ट्रिब्यून 01-04-12 का सम्पाकीय

एक अप्रैल 2012 के दैनिक ट्रिब्यून का सम्पाकीय जिसमें 'नागफनी के फूल' का एक दोहा उद्दृत किया गया है|

बिटिया को महंगा लगे माथे का सिंदूर

Posted On March - 31 - 2012

गैर-ब्रांडेड आभूषणों पर एक फीसदी उत्पाद शुल्क और सोने के आयात शुल्क को दोगुना किये जाने के खिलाफ सर्राफा कारोबारी दो सप्ताह से आंदोलनरत हैं। देशव्यापी बंद-धरने-प्रदर्शन और कैंडल मार्च जैसे उपक्रमों से व्यापारी सरकार पर दबाब बनाने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन सरकार टस से मस नहीं हुई। सर्राफ कारोबारी इस मुद्दे पर आंदोलनरत तो हैं लेकिन हकीकत यह है कि इसका खमियाजा आम आदमी ही भुगतेगा। हो सकता है कि उच्चवर्ग, कारोबारियों तथा कालेधन के पुजारियों के लिए सोना निवेश का अचूक साधन हो, लेकिन उस गरीब की तो मजबूरी है जिसे अपनी बिटिया के हाथ पीले करने हैं। इस हड़ताल से बाजार ठप्प पड़े हैं, ऐसे में उस बाप पर क्या बीत रही होगी, जिसकी बेटी की सगाई या शादी हाल-फिलहाल होने वाली है? ऐसा नहीं है कि महानगरों में ही सर्राफा बाजार बंद हों, अब तो छोटे शहरों व कस्बों में भी सर्राफा कारोबारी इस आंदोलन का हिस्सा बन चुके हैं। देश के संवेदनशील शासकों ने यह कभी नहीं सोचा कि उत्पाद शुल्क में वृद्धि व आपातशुल्क दुगना करने से गरीब व आम तबका बेटी कैसे बयाहेगा। हिंदू संस्कृति में सोना संस्कार है और अमीर-गरीब बेटी को अपनी हैसियत से सोना अवश्य देते हैं। कोई प्रतीकात्मक रूप में तो कोई दिखावे के साथ। लेकिन अब लगता है कि केंद्र सरकार की नीतियों के चलते आम आदमी को बेटी का विवाह करना महंगा साबित होगा। जैसा कवि अशोक अंजुम लिखता भी है :-
सौदागर इस देश के, रहते मद में चूर,
बिटिया को महंगा लगे, माथे का सिंदूर।
यह पूरे देश में पहला मौका होगा कि सारे सर्राफा-कारोबार एक साथ, इतने लंबे समय के लिए बंद हुए हों। ऐसे में आभूषणों एवं अन्य उत्पादों के लिए उपभोक्ता शहर-शहर खाक छानते फिर रहे हैं। उनकी परेशानी का महसूस करना कठिन है। सेंट्रल एक्साइज की पेचीदगियां और कस्टम शुल्क बढ़ाने की तिकड़मों से तो आम आदमी अनजान है लेकिन इतना तो तय है कि इन ड्यूटियों के लगने से ग्राहकों को अतिरिक्त खर्च करना पड़ेगा। सरकार तो गणित लगाकर बैठी है कि उत्पाद शुल्क बढ़ाने से उसे 100 करोड़ का अतिरिक्त राजस्व मिलेगा। लेकिन उसे इस बात का अहसास नहीं है कि हाशिये पर खड़े आदमी की मुश्किलें कितनी बढ़ जाएंगी। गैर-ब्रांडेड आभूषणों पर एक फीसदी उत्पाद शुल्क के अलावा सोने की छड़, सिक्के और प्लेटिनम पर आयात शुल्क दो से बढ़ाकर चार फीसदी करने से आशंका जताई जा रही है कि खुदरा कीमतों में छह फीसदी तक का इजाफा हो सकता है, जिसकी कीमत न सरकार चुकाएगी और न ही सर्राफा बाज़ार, चुकाएगा तो आम आदमी, पिसना जिसकी नियति है। ऐसे में आम आदमी के दर्द को कवि विपिन सुनेजा ‘शायक’ ने कुछ शब्द दिये हैं :-
बाज़ार बढ़ गये हैं, रौनक भी बढ़ गई है,
रोता हुआ मिला है अकसर कबीर अब भी।
यह समझ से परे है कि देश कौन चला रहा है, हमारे प्रतिनिधि या विश्व बैंक व पश्चिमी देशों द्वारा संचालित अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं। भारत में दुनिया का सबसे अधिक सोना होने की खबरें पिछले दिनों प्रकाशित हुई थीं। इसकी वजह यह है कि सोना हमारे संस्कार में है। भारतीय जनमानस को शेयर मार्केट में विश्वास न रहा तो सोने में निवेश करना शुरू हुआ। ये शेयर बाज़ार संचालित करने वाले शातिर लोगों को रास नहीं आया। यदि सोना महंगा होगा तो लोग शेयर बाज़ार में निवेश करेंगे। लेकिन लगता नहीं ऐसा होगा। जनता को अभी तक वह रहस्य नहीं पता कि बराक ओबामा को छींक आने से शेयर बाजार क्यों धराशायी हो जाता है। लेकिन सवाल यह है कि सरकार काले धन को देश में लाने की ईमानदार कोशिशें क्यों नहीं करती? इस पैसे को भी तो शेयर बाजार में निवेश करके विश्व व्यापार घाटे को पूरा किया जा सकता है। देश को लूटकर विदेश में निवेश करने वालों को लूट की छूट देने वाली सरकारों को उलाहना देते हुए रघुविंद्र यादव कहते हैं :-
दौलत लूटी देश की, कर दी जमा विदेश,
गैरों से नेता कहे, आओ करो निवेश।
वास्तव में केंद्र सरकार विदेशी व्यापार घाटे को कम करने तथा शेयर बाजार को चमकाने के लिए पीली धातु के आयात पर शुल्क लगा रही है। सरकार मानती है कि विदेशी व्यापार में होने वाले घाटे का अहम कारण बड़ी मात्रा में सोने का आयात किया जाना है जिसके लिए बहुत अधिक विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है। सरकार सोचती है कि सोना महंगा होगा तो निवेश शेयर बाजार में होगा। इससे घरेलू बाजार में पैसे की तंगी कम होगी। यही वजह है कि जनवरी में सोने पर आयात शुल्क तीस रुपये प्रतिग्राम से बढ़ाकर दो फीसदी, तदुपरांत बजट में दो से चार फीसदी कर दिया गया। लेकिन इस संवेदनहीन सरकार को कौन समझाए कि सोना बाजार का ही अवयव नहीं है, वह भारतीय संस्कारों में रचा-बसा है। वह अपरिहार्य आवश्यकता भी है। शायद कुर्सी पर बैठे धृतराष्ट्रों को कवि की इन पंक्तियों से कुछ अहसास हो :-
खून पसीना जोड़कर, ले दहेज के साथ,
बिटिया के करने चला, दुखिया पीले हाथ।

Sunday, March 18, 2012

सम्पादकीय में दोहा

15 मार्च के "दैनिक ट्रिब्यून" के सम्पादकीय में 'नागफनी के फूल' का एक दोहा कोट किया गया है| सम्पादकीय का शीर्षक भी इसी के दोहे की पंक्ति है/

सरकारें आयीं-गयीं, भूखा रहा अवाम!

Posted On March - 18 - 2012

वर्ष 2011 की जनगणना के दौरान जुटाये गये आंकड़ों से भारत की जो तसवीर उभरती है, वह देश को शर्मसार करने वाली है। शाइनिंग इंडिया, विश्व की चौथी बड़ी आर्थिक शक्ति और न जाने ऐसे तमाम जुमलों से देश की जनता को बहलाने वाले राजनेता किस तरह सच्चाई पर पर्दा डालते रहे हैं, उसकी हकीकत ये आंकड़े बयां करते हैं। देश की आधी आबादी के पास शौचालयों का न होना राष्ट्रीय शर्म का विषय ही कहा जा सकता है। कई राज्यों खासकर झारखंड में यह आंकड़ा 70 फीसदी दर्ज किया गया है। इसके मूल में आर्थिक मजबूरी, परंपरागत कारण व अशिक्षा निहित है। विडंबना देखिये कि पचास फीसदी जनता के पास मोबाइल तो हैं लेकिन पचास फीसदी जनता के पास शौचालय नहीं है। देश के 48 फीसदी लोगों के घर में जल निकासी की व्यवस्था नहीं हैं। विडंबना यह भी है कि 36 फीसदी लोग एक कमरे के मकान में रहते हैं। ऊंची-ऊंची विकास दर के दावों के बावजूद नंगी हकीकत यह भी है कि देश में मात्र 4.7 फीसदी लोगों के पास चौपहिया वाहन हैं और 44 फीसदी लोगों के यातायात का साधन साइकिल है। ये आंकड़े देश में लोकतंत्र की असली तसवीर दिखाते हैं कि लूटतंत्र में तबदील हो चुके लोकतंत्र का फायदा वास्तव में किसे हो रहा है। इन आंकड़ों से उभरती तसवीर से आहत कवि रघुविंद्र यादव सटीक टिप्पणी करते हैं:-
बड़े-बड़े जलसे हुए, वादे हुए तमाम,
सरकारें आयीं गयीं, भूखा रहा अवाम।
जनगणना आयुक्त और रजिस्ट्रार जनरल सी. चंद्रमौली द्वारा जारी आंकड़े हमें बताते है कि ग्रामीण भारत की 62 फीसदी आबादी आज भी खाना बनाने के लिए लकड़ी के ईंधन का इस्तेमाल करती है, जबकि 28 फीसदी लोग ही खाना बनाने हेतु गैस का इस्तेमाल करते हैं। आंकड़ों का एक निष्कर्ष यह भी है कि आज विकास सिर्फ महानगरों व बड़े शहरों तक सिमट कर रह गया है। इनके निष्कर्ष यह भी हैं कि देश के विकास का मॉडल इस विभेद का कारक है, जो ग्रामीण समाज को हाशिये पर धकेल देता है। विकास के नाम पर उन्हें सिर्फ और सिर्फ आश्वासन ही मिले। जैसा कि कवि ज्ञानप्रकाश ‘विवेक’ लिखते भी हैं :-
आश्वासनों के घड़े में डालकर वादों का जल,
मुफलिसों की प्यास को इस तरह बहलाया गया।
दुनिया की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में शुमार भारत के बारे में यह तथ्य चौंकाता है कि 2001 के मुकाबले चौपहिया वाहनों में 2.5 फीसदी के मुकाबले वृद्धि कुल 4.7 हो गई है। रोचक बात यह है कि शहरों व ग्रामीण इलाकों में दोपहिया वाहनों के प्रति रुझान बढ़ा है। देश के 21 प्रतिशत घरों में दोपहिया वाहन हैं, इसमें 9.3 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज हुई है। यह भी कम चौंकाने वाली बात नहीं है कि आम आदमी का वाहन मानी जाने वाली साइकिल में 1.1 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। देश में 44.8 प्रतिशत घरों में साइकिल है। लेकिन शहरों में साइकिलों के प्रति रुझान घटा है। देश में लक्षद्वीप ऐसा संघीय शासित क्षेत्र है जहां साइकिल के प्रति लोगों में खासा रुझान है। तसवीर यह बताती है कि ऊंची-ऊंची विकास दरों और शेयर मार्केट की उछाल से आम आदमी का कोई सरोकार नहीं है। आम आदमी के दुख-दर्द और शेयर मार्केट की उछाल की विसंगति को कवि केशू कुछ इस तरह शब्द देता है :-
यहां भूख को लेकर बहस बेकार है शायद,
तरक्की का पैमाना शेयर बाजार है शायद।
जनगणना के आंकड़ों में सबसे चौंकाने वाली जानकारी यह सामने आई है कि देश में स्कूल-अस्पतालों से ज्यादा मंदिर-मस्जिद हैं। देश के पंजीयक एवं जनगणना के आंकड़ों के अनुसार देश में शैक्षणिक संस्थान एवं अस्पताल 27.89 लाख हैं जबकि पूजास्थल 30 लाख से अधिक हैं। वर्ष 2001 की जनगणना के मुकाबले धार्मिक स्थलों में तीव्र वृद्धि दर्ज हुई। इस अवधि में शैक्षणिक संस्थान व अस्पताल 6.7 लाख बढ़े, जबकि पूजास्थल 7.15 लाख बढ़े। विडंबना यह है कि अस्पताल करीब 80 हजार ही बढ़े जबकि शिक्षण संस्थान 6.5 लाख बढ़े। ये आंकड़े हमारी सोच तथा विकास की दशा व दिशा को दर्शाते हैं। ऐसे हालात को देखकर कवि उदयभानु ‘हंस’ लिखते हैं :-
हमने जितने थे बुने इंद्रधनुष के सपने,
चिथड़े हो गये सब विधवा के आंचल की तरह।
इन्हीं आंकड़ों के बीच खबर आई कि बसपा सुप्रीमो मायावती की संपत्ति 2007 के 52 करोड़ के मुकाबले 2012 में 111 करोड़ 64 लाख हो गई है। उनकी संपत्ति पिछले दो साल में 25 फीसदी की दर से बढ़ी है। उधर बिजनेस इनसाइडर की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया के तमाम रईस राजनेताओं में सोनिया गांधी का नंबर चौथा है। साइट के मुताबिक कांग्रेस अध्यक्षा की संपत्ति 45 हजार करोड़ आंकी गई है। ये आंकड़े बताते हैं कि देश के राजनेता उत्तरोत्तर आर्थिक उन्नति कर रहे हैं, लेकिन आम आदमी हाशिये पर जा रहा है। आम आदमी के पास थोड़े पैसे आते हैं तो आयकर विभाग समेत तमाम विभाग छानबीन में जुट जाते हैं लेकिन बड़ी मछलियों पर कोई हाथ नहीं डालता। जैसा कि वसीम बरेलवी लिखते भी हैं :-
गरीब लहरों पे पहरे बिठाये जाते हैं,
समन्दरों की तलाशी कोई नहीं लेता।
यह देश का दुर्भाग्य ही है कि जनतंत्र में जब जन हाशिये पर जा रहा है और तंत्र फल-फूल रहा है देश की संसद में तीन सौ सांसदों का करोड़पति होना यही दर्शाता है कि देश में आर्थिक असमानता की क्या स्थिति है। एक तरफ आधी आबादी बीस रुपये रोज की आय पर गुजर-बसर कर रही है, वहीं दूसरी ओर अरबपतियों की बढ़ती संख्या गरीबी का मजाक उड़ा रही है। लेकिन इतना तो तय है कि हमारे सत्ताधीश जनमानस के सरोकारों के प्रति संवेदनहीन बने हुए हैं। यदि हमारे शासक आम आदमी की समस्याओं के प्रति गंभीर होते तो जनगणना के ये आंकड़े शर्मसार न करते। इसी हकीकत का बयां करते हुए कवि अंजुम सटीक टिप्पणी करते हैं :-
देश हो गया आपके, अब्बा की जागीर,
जैसे चाहे भोगिए, जनता हुई फकीर।

Wednesday, January 25, 2012

प्रतियोगिता का परिणाम

ओपन बुक्स ऑनलाइन द्वारा आयोजित चित्र से काव्य प्रतियोगिता में हरियाणा के दोहाकार रघुविन्द्र यादव को तृतीय पुरस्कार मिला|  
राष्ट्रीय स्तर पर ऑनलाइन आयोजित इस प्रतियोगिता में देशभर के रचनाकारों ने भाग लिया और अपनी रचनाएं प्रस्तुत की| निर्णायक मंडल ने सभी रचनाओं का अवलोकन करने उपरांत श्री अरुण निगम की रचना को प्रथम और रघुविन्द्र यादव की रचना को तीसरा स्थान प्रदान किया|
श्री यादव को नगद पुरस्कार के साथ प्रशस्ति पत्र भी प्रदान किया जाएगा| रघुविन्द्र यादव हरियाना के एकमात्र युवा कवि हैं जिनकी दोहाकार के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर पहचान है| वे बाबूजी का भारतमित्र नामक साहित्यिक पत्रिका के संपादक हैं और उनकी दोहा कृति "नागफनी के फूल" बेहद चर्चित रही है|
ओपन बुक्स ऑनलाइन द्वारा घोषित परिणाम
http://www.openbooksonline.com/group/pop/forum/topics/5170231:Topic:184618?commentId=5170231%3AComment%3A184475&groupId=5170231%3AGroup%3A68907#

ओपन बुक्स ऑनलाइन द्वारा आयोजित चित्र से काव्य प्रतियोगिता में हरियाणा के दोहाकार रघुविन्द्र यादव को तृतीय पुरस्कार मिला|  
राष्ट्रीय स्तर पर ऑनलाइन आयोजित इस प्रतियोगिता में देशभर के रचनाकारों ने भाग लिया और अपनी रचनाएं प्रस्तुत की| निर्णायक मंडल ने सभी रचनाओं का अवलोकन करने उपरांत श्री अरुण निगम की रचना को प्रथम और रघुविन्द्र यादव की रचना को तीसरा स्थान प्रदान किया|
श्री यादव को नगद पुरस्कार के साथ प्रशस्ति पत्र भी प्रदान किया जाएगा| रघुविन्द्र यादव हरियाना के एकमात्र युवा कवि हैं जिनकी दोहाकार के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर पहचान है| वे बाबूजी का भारतमित्र नामक साहित्यिक पत्रिका के संपादक हैं और उनकी दोहा कृति "नागफनी के फूल" बेहद चर्चित रही है|
ओपन बुक्स ऑनलाइन द्वारा घोषित परिणाम
http://www.openbooksonline.com/group/pop/forum/topics/5170231:Topic:184618?commentId=5170231%3AComment%3A184475&groupId=5170231%3AGroup%3A68907#

Sunday, January 15, 2012

दैनिक ट्रिब्यून 15 जनवरी का सम्पादकीय


ज्यादा उम्र तक सुखद जीवन जीने और पीने की इच्छा रखने वालों के लिए यह खबर नसीहतभरा पैगाम ले आयी है। हाल ही में ब्रिटेन के एक सर्वाधिक उम्रदराज दंपति की शादी की 86वीं सालगिरह की खबर अखबारों की सुर्खियों में आयी। खबर के मुताबिक 106 साल के करमचंद और उनकी 99 साल की पत्नी करतारी, जो 1965 में पंजाब से ब्रिटेन जाकर बसे थे, ने पिछले दिनों अपनी शादी की 86वीं सालगिरह मनायी। उनका दावा है कि वे ब्रिटेन के सबसे लंबे वक्त तक जीवित विवाहित जोड़ा बने रहने का खिताब हासिल कर सकते हैं। जब उनसे चिरायु तक शारीरिक एवं ‘वैवाहिकÓ रूप से सेहतमंद रहने का रहस्य पूछा गया तो उनका कहना था कि आप जो चाहते हैं खाइये-पीजिए लेकिन अत्यधिक नहीं। करमचंद रोजाना रात के खाने से पहले एक सिगरेट पीते हैं और सप्ताह में तीन और चार बार व्हिस्की तथा ब्रांडी भी लेते हैं। करम चंद के इस दावे से उन शायर महोदय को तकलीफ जरूर हुई होगी जिसने कहा था :-
मद भरे जाम से डर लगता है,
प्यार के नाम से डर लगता है।
जिसका आगाज़ चोरी-चोरी हो,
उसके अंजाम से डर लगता है।
करमचंद और उनकी धर्मपत्नी करतारी ने तंदुरुस्ती और लंबी उम्र तक जीने का अगला गुर बताया—परस्पर अथाह प्रेम। इसमें संदेह नहीं कि वृद्धावस्था में पति और पत्नी ही एक-दूसरे की शून्यता के पोषक होते हैं क्योंकि बेटे-बेटियां और उनकी अगली पीढिय़ां अपने कामकाज और परिवारों में व्यस्त हो जाते हैं। ऐसे माहौल में पति और पत्नी ही एक-दूसरे के पोषक और पूरक बन सकते हैं। ब्रिटेन के इस वयोवृद्ध जोड़े से भारत के युवाओं को उन जोड़ों को नसीहत लेनी चाहिए जो आज की भागदौड़ और जि़ंदगी में झगड़ालु, तुनकमिजाज और असहिष्णु होते जा रहे हैं। कितनी हैरत की बात है कि एक भारतीय दंपति पूर्व से जाकर पश्चिम में हमारे देश की समृद्ध संस्कृति तथा संस्कारों का संदेश दे रहा है जबकि रघुविन्दर यादव की इन पंक्तियों पर गौर करें तो लगता है कि हमारे यहां तो गंगा उलटी ही बहने लगी है :-
मृत हुई संवेदना, खत्म हुआ सद्भाव,
पूर्व पर भी हो गया पश्चिम का परभाव।
उधर, प्रख्यात एवं वयोवृद्ध पत्रकार खुशवंत सिंह द्वारा बताये गये जवान बने रहने के टोटके भी काबिलेगौर हैं। उनका कहना है कि वृद्धावस्था को जीने लायक बनाये रखने के लिए शरीर की नियमित रूप से मालिश करनी चाहिए। वह सुबह का नाश्ता तो अमरूद के रस से शुरू करते हैं लेकिन सांझ ढलते ही सिंगल माल्ट व्हिस्की का प्याला हाथ में ले लेते हैं। यहां हमारा अभिप्राय यह नहीं कि व्हिस्की सेहत के लिए लाभदायक होती है। लेकिन खुशवंत सिंह के रोजमर्रा के जीवन के कई और ऐसे पहलु हैं जो इस उम्र में भी उन्हें जि़ंदादिल इनसान बनाये हुए हैं। उनका मानना है कि अपनी दिनचर्या पर सख्त अनुशासन रखो। जरूरी हो तो स्टॉप वॉच का प्रयोग करो। वह सुबह ठीक 6 बजे अमरूद के रस का नाश्ता लेते हैं, 12 बजे पतली खिचड़ी, सब्जी से लंच और डिं्रक के उपरांत रात 8 बजे भोजन। उनका कहना है कि मन को शांत रखो और हमेशा अपने राष्ट्रीय प्रतीक सत्यमेव जयते का अनुपालन करो। खुशवंत सिंह जैसी शख्सियत से हम न केवल स्वस्थ रहने की सीख ले सकते हैं बल्कि प्रेरणा भी पा सकते हैं। हम अपनी बात की ताकीद यादव जी की इन पंक्तियों के माध्यम से भी कर सकते हैं :-
मंजि़ल उसको ही मिली जिसमें उत्कट चाह,
निकल पड़ा जो ढूंढने पाई उसने राह।
परिवार के बच्चों, युवा सदस्यों की दिनचर्या में बेमतलब का दखल, निठल्लापन, चिड़चिड़ापन और निंदा-चुगली करते रहना बुढ़ापे का विष है जबकि सुबह की सैर, योगाभ्यास, ध्यान, पूजा-अर्चना और संवेदनशीलता बुढ़ापे के अमृत माने जा सकते हैं। पति-पत्नी अगर एक-दूसरे से दु:ख-सुख को समझने का संवेदन-भाव रखते हों तो यह दोनों के लिए अमृतपान समान हो सकता है। ऐसा न होने पर जीवन का हाल क्या होगा, इसका अनुमान टॉलस्टॉय के जीवन से भलीभांति लगाया जा सकता है। संत स्वभाव के टॉलस्टॉय के पास धन-दौलत और ख्याति की कोई कमी नहीं थी लेकिन पत्नी के कटु व्यवहार से जीवनभर पीड़ा झेलते रहे और अंतत: पराजित होकर 82 वर्ष की आयु में शांति की तलाश में घर छोड़ गये। इस प्रकरण को याद करते हैं तो कवि की यह पंक्तियां सहज मन-मस्तिष्क में आ जाती है :-
हम रूठें तो किसके भरोसे रूठें,
कौन है जो आयेगा हमें मनाने के लिए,
हो सकता है तरस आ भी जाये आपको,
पर दिल कहां से लायें आप से रूठ जाने के लिए?
ब्रिटेन में बसे करमचंद तथा करतारी के 27 पोते-पोतियां और 23 परपौत्र-परपौत्रियां हैं और वे जीवन के हर लम्हे को बोनस और भगवान का प्रसाद मानकर मजे से जी रहे हैं। यदि हम बुढ़ापे को अभिशाप न मानें और इसे लेकर रोना न रोयें तो यह सकारात्मक दृष्टिकोण आपकी वृद्धावस्था को विचलित नहीं होने देगा। तो आइये, कवि के इस आह्वान पर चलें :-
वक्त कहता है बदल दो जि़ंदगी के मायने,
रूप पहला देखने को पर खड़े हैं आईने।

Monday, January 2, 2012

अपनी माटी वेब पत्रिका में दोहे

अपनी माटी वेब पत्रिका में रघुविन्द्र यादव के दोहे 

होती हैं जिस देश में, नौकरियां नीलाम.
रिश्वत बिन कैसे वहां, होगा कोई काम.

बेशक मैं हर दिन मरा, जिन्दा रहे उसूल.
जीना बिना उसूल के, मुझको लगे फिजूल.

बहुत दिनों तक जी लिए, शीश झुका कर यार.
अब तो सच का साथ दो, बन जाओ खुद्दार.

कहीं उगे हैं कैक्टस, कांटे, कहीं बबूल.
दौर गिरावट का चला, मरने लगे उसूल

गन्दा कह मत छोडिये, राजनीति को मीत.
बिना लड़े होती नहीं, अच्छाई की जीत.

जनता के दुःख दर्द का, नहीं जिसे अहसास.
कैसे उस सरकार पर, लोग करें विश्वास ?

http://www.apnimaati.com/2011/12/blog-post_9639.html?utm_source=BP_recent