विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Showing posts with label लिंक. Show all posts
Showing posts with label लिंक. Show all posts

Sunday, December 11, 2011

11 दिसंबर के दैनिक ट्रिब्यून में रघुविन्द्र यादव का दोहा

दैनिक ट्रिब्यून के 11 दिसंबर के अंक में 'नागफनी के फूल' का भी एक दोहा कोट किया गया है| 

संस्कृति सब घायल हुई बिना तीर-तलवार!

Posted On December - 11 - 2011

अपसंस्कृति के इस दौर में टेलीविजन जो कुछ हमारे घरों में परोसता आया है, वह किसी से छिपा नहीं है। सास-बहू के धारावाहिकों के नाम पर परिवार के भीतर कल्पित षड्यंत्रों को परोसने से जब चैनलों का मोह भंग हुआ तो तथाकथित ‘रियलिटी शो’ का दौर शुरू हुआ। जिसमें आम आदमी की संवेदनाओं से खेलने तथा चौंकाने वाला मसाला परोसकर टीआरपी बढ़ाने का खेल बदस्तूर जारी है। इस खेल का नया एपिसोड है बिग बॉस नामक धारावाहिक। इस धारावाहिक में चोर-लुटेरों से जघन्य अपराधों में लिप्त खलनायकों को नायक बनाने का खेल कई सालों से बदस्तूर जारी है। छल-कपट, धोखा, प्यार का प्रपंच, षड्यंत्र, पागलपन की हद तक लड़ाई-झगड़े, कलह, झूठ-फरेब जैसे कृत्यों को दर्शकों के समक्ष पेश करके विज्ञापन बटोरने का कृत्य चल रहा है। विवादों के सरताज इस कार्यक्रम में अमेरिका की अश्लील फिल्मों की तारिका भारतीय मूल की सन्नी लियोन की एंट्री से ताजा विवाद और गहरा गया है। भारतीय संस्कृति को तार-तार करने वाली पश्चिमी संस्कृति का रंग भारतीयों पर किस कदर गहरा रहा है, वह इस बात से पता चलता है कि सन्नी लियोन के बिग बॉस में आने के बाद उनकी अश्लील चित्रों की तलाश में विभिन्न साइटों को दो करोड़ से अधिक बार खंगाला गया। यह भयावह आंकड़ा बताता है कि अश्लील दृश्यों को तलाशने की भूख भारतीय समाज में किस कदर बढ़ रही है। शायद ऐसे ही हालात से दुखी होकर, टीवी द्वारा फैलायी जा रही अपसंस्कृति पर चर्चित कवि गोपालदास नीरज ने लिखा होगा :-
टीवी ने हम पर किया यूं छुप-छुप कर वार,
संस्कृति सब घायल हुई बिना तीर-तलवार।
बिग बॉस में सन्नी लियोन की उपस्थिति को भले ही कार्यक्रम के आयोजकों तथा चैनल ने अपनी टीआरपी बढ़ाने का शार्टकट मान लिया हो, लेकिन जागरूक अभिभावक भी अपने बच्चों के भविष्य की चिंता को लेकर सक्रिय हुए हैं। उसकी उपस्थिति को लेकर सूचना प्रसारण मंत्रालय भी खासा चिंतित है। लेकिन समाज के जागरूक लोगों खासकर किशोर-वय के बच्चों के अभिभावकों ने ब्रॉडकॉस्टिंग कंटेट कम्प्लेन काउंसिल (बीसीसीसी) को बड़ी संख्या में शिकायतें दर्ज कराई हैं कि बिग बॉस में सन्नी लियोन की उपस्थिति से बच्चों की मन:स्थिति पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। उनकी शिकायत वाजिब है क्योंकि इंटरनेट पर सन्नी लियोन की शर्मसार करने वाली तस्वीरों की भरमार है। यदि अश्लील फिल्मों की कथित नायिका को भारतीय चैनलों द्वारा महिमामंडित किया जाए तो अभिभावक अपने बच्चों को पथभ्रष्ट होने से कैसे रोक पाएंगे? वास्तव में पश्चिमी खुले समाज में जिस नंगाई को सहजता से लिया जाता है, हमारा गरिमामाय समाज उसे सदा से नकारता रहा है। इंटरनेट नामक बेकाबू दैत्य उस ज़हर को अब धीरे-धीरे भारतीय समाज में उड़ेल रहा है जो कि हर भारतीय की चिंता का विषय है। इसके चलते किशोर पथभ्रष्ट हो रहे हैं और यौन-अपराधों का सिलसिला लगातार बढ़ रहा है। ऐसे हालातों पर तंज़ करते हुए डॉ. बलजीत लिखते हैं :-
पश्चिम का हम पर चढ़ा, ऐसा गहरा रंग,
उलट-पलट सब हो गए, रहन-सहन के ढंग।
वास्तव में सवाल बिग बॉस व सन्नी लियोन का ही नहीं है, टेलीविजन के अधिकांश कार्यक्रम प्रेम-प्रसंगों के नाम पर फूहड़ता व विवाहेत्तर संबंधों को महिमामंडित करने में लगे हैं। नारी आज़ादी की दुहाई देकर लिव-इन-रिलेशनशिप, समलैंगिक तथा विवाहेत्तर संबंधों को जैसे महिमामंडित विभिन्न धारावाहिकों में किया जा रहा है, वह बच्चों के दिलो-दिमाग में ज़हर घोल रहा है। लेकिन देश के नीति-नियंता खामोश बैठे हैं। पैसा कमाने की होड़ में चैनल किसी भी हद तक जा रहे हैं। पिछले दिनों आये ‘सच का सामना’ जैसे कार्यक्रमों में नानी-पोते वाले शख्स अपने अवैध संबंधों को ऐसे बता रहे थे जैसे उन्होंने कोई बड़ा बहादुरी का काम किया हो। पश्चिमी जीवनशैली पर तैयार किये गये कार्यक्रमों की भारत में नकल की जा रही है। लेकिन दोनों समाजों के स्वरूप में ज़मीन-आमसान का अंतर है। टीवी की इस अपसंस्कृति पर व्यंग्य करते हुए कवि डॉ. वी. सिंह लिखते हैं :-
इस कमरे में चल रहा, पति-पत्नी संवाद,
उसमें बच्चे चख रहे, ब्लू फिल्मों का स्वाद।
यह एक हकीकत है कि वैश्वीकरण व खुली अर्थव्यवस्था के नाम पर पश्चिमी देशों ने अपने आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए जो हथकंडे अपनाये, उसके साथ पश्चिमी देशों की गंदगी भी हमारे समाज में घुल रही है। सूचना प्रौद्योगिकी की क्रांति के साथ उनकी अपसंस्कृति के वायरस हमारे तंत्र में घुल रहे हैं। इंटरनेट पर लाखों अश्लील साइटें देश में खोली जा रही हैं। मोबाइल-कंप्यूटर के जरिये वे लाखों-करोड़ों लोगों तक पहुंच रही हैं। सोशल साइट्स के नाम पर इसका विस्तार घर-घर तक पहुंच रहा है। हो सकता है जो बात पश्चिम की खुली संस्कृति में स्वीकार्य हो, वह भारत में वर्जित हो। कुल मिलाकर रिश्तों की पवित्रता तथा यौन-शुचिता की भारतीय अवधारणा तार-तार हो रही है। देश पर हुए तमाम आक्रमणों ने भारतीय संस्कृति को उतना नुकसान नहीं पहुंचाया जितना पश्चिम की अपसंस्कृति ने पहुंचाया है। वे इंटरनेट व विभिन्न साइटों से मोटा कारोबार कर रहे हैं। वेलेंटाइनी संस्कृति हम पर थोप रहे हैं। यह उनका व्यापार है, लेकिन भारतीय संस्कृति पर मार है। यह भी एक हकीकत है कि अपसंस्कृति अभिजात्य व धनाढ्य वर्ग से नीचे की ओर चलती है। फिल्मी सितारों से लेकर धनाढ्य वर्ग खुलेपन की अपसंस्कृति को सर्वप्रथम अंगीकार करता है फिर उनकी देखादेखी उच्च व मध्यमवर्ग भी करने लगता है। इस सामाजिक विद्रूपता को बेनकाब करते हुए कवि रघुविंद्र यादव लिखते हैं :-
चोली धनिया की फटे, लोग करें उपहास,
बेटी धन्ना सेठ की, फिरती बिना लिबास।
वास्तव में बाज़ार आज हमारे जनजीवन में इतने गहरे उतर गया है कि समझना मुश्किल है कि कहां-कहां खेल है। देसी से लेकर बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपना कारोबार चलाने के लिए जो हथकंडे अपना रही हैं, उनको समझना जरूरी है। टीवी पर भी लोगों की संवेदनाओं से खेलने का जो खेल जारी है उस पर अंकुश लगाने के लिए कोई प्रभावी नियामक संस्था की आवश्यकता तत्काल महसूस की जा रही है। टीवी कार्यक्रम बनाने वाली कंपनियों से लेकर इंटरनेट तथा मोबाइल कंपनियों ने तो सिर्फ अपना कारोबार करना है। उनके नापाक मंसूबों को समझने की जरूरत है। बाज़ार के गणित की हकीकत बयां करते राजकुमार सचान होरी लिखते हैं :-
लैला-मजनूं कर रहे एसएमएस से मेल,
इश्क के संग-संग बढ़े कंपनियों की सेल।

Sunday, November 6, 2011

दैनिक ट्रिब्यून का सम्पादकीय

यहाँ क्लिक करें

…उनके सिर पर ताज!

Posted On November - 6 - 2011

केबीसी के मंच से पांच करोड़ का जैकपॉट जीतने वाले सुशील कुमार आज सिर्फ मोतिहारी के नहीं पूरे देश के हीरो हैं। कोई व्यक्ति मेहनत-लगन व संचित ज्ञान से कुछ समय में करोड़पति भी बन सकता है, यह हमें सुशील ने बताया। अभावग्रस्त जीवन जीने वाले ने एक ही झटके में शोहरत व दौलत हासिल करके नई पीढ़ी के युवाओं को संदेश दिया है कि महज कक्षाएं पास करना ही जरूरी नहीं है, विस्तृत ज्ञान भी जीवन के नये रास्ते बनाता है। जिसके घर टीवी नहीं था अब वह टीवी का हीरो है। जीवन में एक बार जूते पहनने वाला सुशील अपनी प्रतिभा के बल पर हवाई जहाज से मुंबई पहुंचा। तारीफ तो उनके साहस व जोखिम लेने की प्रवृत्ति की भी करनी होगी कि उन्होंने बहुत कुछ गंवाने के खतरे के बावजूद पांच करोड़ के प्रश्न के लिए कौन बनेगा करोड़पति का आखिरी सवाल भी खेला। उसने अभावग्रस्त समाज के कुंठित युवाओं को संदेश दिया कि यदि कुछ करने का जुनून हो तो मुश्किल परिस्थितियों में भी मंजि़ल हासिल की जा सकती है। वास्तव में फर्श से अर्श तक पहुंचने की सुशील की कहानी किसी तिलिस्म से कम नहीं है। समाज में ऐसे उदाहरण विरले ही मिलते हैं जैसा कि मशहूर शायर बशीर बद्र लिखते भी हैं :-
चमकती है कहीं सदियों में आंसुओं से जमीं,
गज़ल के शेर कहां रोज़-रोज़ होते हैं।
मोतिहारी के हनुमानगढ़ी मोहल्ले के सुशील कुमार आज न केवल बिहार के पूर्वी चम्पारण में युवाओं के प्रेरणा-स्रोत बने हुए हैं बल्कि देश के तमाम संघर्षशील युवाओं के लिए मिसाल बने हुए हैं। पुरस्कार जीतने के बाद अपने भाइयों व माता-पिता की मदद करने की बात कहकर उन्होंने दर्शाया है कि आज भी भारत में संयुक्त परिवार में गहरी आस्था रखने वालों की कमी नहीं है। उनकी आगे बढऩे की ललक तारीफ के काबिल है। यद्यपि हर माता-पिता अपने बच्चों की पढ़ाई पर बल देते हैं लेकिन सुशील की सफलता उन छात्र-छात्राओं के लिए सबक है जो इस मार्ग में भटक जाते हैं। उनके लिए इस जीत का सबक यही है कि प्रयास कभी विफल नहीं होता व कर्म एक निरंतर प्रक्रिया है। अच्छे कर्म के परिणाम हमेशा सकारात्मक होते हैं। कर्म से सोयी किस्मत भी जाग जाती है। जैसा कि कवि योगेंद्र नाथ शर्मा ‘अरुणÓ लिखते हैं :-
जगत कर्म का क्षेत्र है, कर्म करे सो पाये,
मनुज अगर सोया रहे, किस्मत भी सो जाये।
वास्वत में इस शिखर की सफलता के मूल में सुशील की मुश्किल जि़ंदगी व संघर्ष की मार्मिक कहानी है जो किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को भावुक बना देती है। आखिरकार जि़ंदगी में परिवर्तन लाने का जुनून हर किसी को प्रभावित करता है। कई प्रतियोगी परीक्षाओं में विफलता भी सुशील की उड़ान को नहीं रोक पायी, कुछ आत्मविश्वास कम जरूर हुआ लेकिन फिर जीत का एक नया रास्ता उसने तलाशा। आज अगर लोगों की जुबान पर सुशील का नाम है तो उसकी वजह यह है कि आज वे एक प्रतीक बन चुके हैं। इससे पढऩे वाले बच्चों में नयी उमंग पैदा हुई कि पढ़ाई के बल पर भी करोड़पति बनकर शोहरत व दौलत हासिल की जा सकती है। बच्चों में इससे कक्षा के पाठ्यक्रम के अलावा सामान्य ज्ञान में महारत हासिल करने का जुनून भी पैदा होगा। इस संदेश को गुलशन मदान कुछ इस तरह शब्द देते हैं :-
एक निरंतर सफर पर, है सूरज फिर आज,
जो थककर रुकते नहीं, उनके सिर पर ताज।
सुशील कई तरह से प्रेरक शख्स बने हैं। स्कूल स्तर पर सुशील की गिनती बहुत अच्छे विद्यार्थियों में नहीं होती थी। कालांतर कालेज जाने पर पढ़ाई के प्रति जुनून बढ़ा। इंटरमीडिएट द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण करने के उपरांत वे बीए में फस्र्ट डिवीजन से पास हुए। सुशील की जीत ने यह भी संदेश दिया कि पढ़ाई सिर्फ डिग्री हासिल करने का माध्यम मात्र नहीं है, यह जि़ंदगी बदलने का साधन भी है। लाखों अभिभावकों के मन में भी यह उम्मीद जगी है कि किताबी ज्ञान की बदौलत बच्चा पूरे परिवार की किस्मत बदल सकता है। यानी कि निष्कर्ष यही है कि पढ़ाई का फल मीठा होता है। कुल मिलाकर सुशील की कुछ कर गुजरने की उत्कट अभिलाषा ने उसकी तकदीर बदली। जैसा कि कवि रघुविन्द्र यादव लिखते भी हैं :-
मंजि़ल उसको ही मिली, जिसमें उत्कट चाह,
निकल पड़ा जो ढूंढऩे, पायी उसने राह।
वास्तव में देश में व्याप्त आर्थिक असमानता व गरीबी के चलते लाखों प्रतिभाओं को अपनी प्रतिभा को अभिव्यक्त करने का मौका ही नहीं मिल पाता। लाखों बच्चे परिवार की माली हालत ठीक न होने के कारण स्कूल का मुंह नहीं देख पाते। सुशील जैसे लाखों गुदड़ी के लाल भारत के कोने-कोने में विद्यमान हैं, लेकिन अभिजात्य वर्ग के अंग्रेजीदां स्कूलों के चलते उन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का समुचित अवसर नहीं मिल पाता। केबीसी के मंच पर अमिताभ जैसा हिंदी-प्रेमी शख्स सुशील को उसकी भाषा में समझाकर संबल प्रदान करता रहा। अन्यथा ऐसी प्रतिभाओं का मनोबल गिराने की अंग्रेजीदां लोगों की कोशिशें कम नहीं होतीं। आज यदि शिक्षा के अधिकार को असली जामा पहनाया जाए तो अनेक प्रतिभाएं देश के काम आ सकती हैं जो गरीबी के कारण विद्यालयों की दहलीज तक नहीं पहुंच पातीं। ऐसे ही एक बाप के दर्द को शायर उमर बाराबंकी ने शब्द दिये हैं :-
मैंने कोशिश तो बहुत की थी पढ़ाने के लिए,
मुफलिसी ले गई बच्चों को कमाने के लिए।
सही मायनों में बच्चे अभिभावकों की दमित इच्छाओं को साकार करने के दबाव में होते हैं। देशकाल-परिस्थितियों के चलते मां-बाप जो कुछ नहीं बन पाते, उसकी उम्मीद वे उन बच्चों से करते हैं। हम चाहते हैं कि हमारा बेटा डाक्टर, इंजीनियर व आईएएस बने। अपने आर्थिक संसाधनों की पहुंच के अनुरूप उसे शिक्षा देने का प्रयास भी हम करते हैं। यह भी सत्य है कि हर बच्चा मेधावी नहीं होता, कुछ औसत दर्जे के होते हैं। हमारी भी कोशिश होनी चाहिए कि अत्यधिक दबाव से बच्चे का वजूद बिखर न जाए। यह भी सही है कि हर बच्चा सुशील नहीं हो सकता, लेकिन सुशील जैसा बनने की कोशिश अवश्य कर सकता है। ऐसी कोशिश में लगे एक बाप की अभिलाषा को शायर अली जलीली कुछ इस तरह बयां करते हैं :-
रात आई है बच्चों को पढ़ाने में लगा हूं,
खुद जो न बना इनको बनाने में लगा हूं।

Sunday, September 18, 2011

दैनिक ट्रिब्यून के 18 सितम्बर के सम्पादकीय का शीर्षक दोहा

आंगन में उगने लगे, नागफनी के फूल

Posted On September - 18 - 2011

पहले ऐसी खबरें विदेशों से आती थीं कि एक अल्पवयस्क किशोरी ने बच्चे को जन्म दे दिया है, लेकिन फरीदकोट के एक मेडिकल कालेज में नौ सितंबर को एक बारह वर्षीय लड़की ने एक बच्ची को जन्म देकर भारतीय समाज में दरकते मूल्यों का आईना दिखा दिया। यह घटना विचलित करती है। लड़की का परिवार लोकलाज के भय से हरियाणा के किसी शहर को छोड़कर फरीदकोट चला आया था। जाहिरा तौर पर यह व्यथित करने वाली घटना करीबी रिश्तों के घात की परिणति है। राष्ट्रीय स्तर के आंकड़े बता रहे हैं कि हमारी परिवार संस्था के करीबी लोगों द्वारा अबोध बालिकाओं को वासना का शिकार बनाने के मामले बढ़ रहे हैं। घरों में आने-जाने वाले करीबी लोग और आसपड़ोस के परिचित कई लोग अनेक ऐसे अपराधों में लिप्त पाये गये हैं, जिन पर शक नहीं किया जाता। शायद ऐसे ही किसी विश्वासघाती का शिकार यह लड़की भी हुई। जाहिर तौर पर किसी अपने की हवस का शिकार बनी यह लड़की घर वालों के भय से हकीकत बयां न कर सकी। जिसका खमियाजा परिवार को अपना घर-बार छोड़कर तथा जीवनपर्यंत की सामाजिक उपेक्षा के दंश के रूप में भुगतना पड़ेगा। इससे न केवल इस लड़की का भविष्य अंधकारमय हुआ बल्कि नवजात शिशु का भविष्य भी दांव पर लग गया। कौन उसे पिता का नाम देगा और कौन उसकी परवरिश करेगा? ताउम्र उसे समाज के उलाहनों व तंज़ों के बीच जीवनयापन को विवश होना पड़ेगा। ऐसे सामाजिक परिवेश में शर्मसार करने वाली घटनाओं को जन्म देने वाले हालात पर व्यंग्य करते हुए कवि रघुविन्द्र यादव लिखते हैं :-
गड़बड़ मौसम से हुई या माली से भूल,
आंगन में उगने लगे, नागफनी के फूल।

वास्तव में यह एक कटु सत्य है कि तमाम आक्रांताओं के हमलों ने भारतीय समाज को उतनी क्षति नहीं पहुंचाई जितनी पश्चिमी सांस्कृतिक आक्रमण ने पहुंचाई है। पश्चिमी संस्कृति के अंधानुकरण तथा संयुक्त परिवारों के विघटन के चलते एकल परिवार पर बड़े-बूढ़ों का साया जब से हटा है, समाज में कई तरह की विद्रूपताओं ने जन्म लिया है। सामाजिक संस्थाओं की समाज पर पकड़ ढीली होने से नई पीढ़ी निरंकुश हो चली है। संचार माध्यमों के खुलेपन तथा बेलगाम टीवी व अश्लील दृश्यों-संवादों-गीतों से लबरेज फिल्मों ने यौन कुंठाओं को जन्म दिया। इंटरनेट पर खुलने वाली सैकड़ों-हज़ारों अश्लील वेबसाइटों ने वासना की आग में घी डालने का काम किया। चंद रुपयों की खातिर बदन उघाडऩे को तैयार बैठी प्राडक्ट बनी स्त्री ने वासनाओं को विस्तार दिया। इससे समाज के एक तबके की सोच बदली। वह स्त्री को उपभोग की वस्तु मानने लगा। महानगरों में व्याप्त खुलेपन का खमियाजा गांव-देहात की अबोध बालाओं ने झेला। स्त्री के प्रति आये दिन होने वाले यौन अपराध इसी शृंखला का हिस्सा हैं। निठारी गांव का सच सारी दुनिया ने देखा, जब छोटी-छोटी बच्चियों को हवस का शिकार बनाया गया। नर-पिशाचों के कुकृत्य पर तंज़ करते हुए कवि लिखता है :-
इंद्र-वासना को मिले, जब कलयुग की छांव,
‘होरी’ जन्मेगा तभी, एक निठारी गांव।

सही मायनों में उपभोक्तावादी संस्कृति ने भारतीय समाज की सदियों से चली आ रही गरिमा को तार-तार कर दिया है। कला-संस्कृति की आज़ादी व सच दिखाने के नाम पर सूचना माध्यमों द्वारा जो नंगापान परोसा जा रहा है, उसने समाज में नई पीढ़ी के भटकाव के कारण पैदा किये। ज्यो-ज्यों समाज में स्त्री घर की दहलीज पार करके समाज में अपना स्थान तलाशने निकली तो ललचाई आंखों ने उसे उपभोग के नजरिये से देखना शुरू किया। छोटे सरकारी दफ्तरों से लेकर सेना-वायुसेना तक में महिला कर्मियों के यौन उत्पीडऩ के किस्से अब आम हो चले हैं। सामाजिक वर्जनाएं तार-तार हो रही हैं। जैसा कि कवि गोपालदास नीरज लिखते हैं :-
आंखों का पानी मरा, हम सबका यूं आज,
सूख गये जल-स्रोत सब, इतनी आई लाज।

सवाल उठाया जा सकता है कि समाज में यह वासना का विस्फोट यकायक कैसे पैदा हुआ? इस सवाल के जवाब औद्योगिक क्रांति तथा हमारे रहन-सहन में पश्चिमी तौर-तरीकों के अंधानुकरण के रूप में देखे जा सकते हैं। विडंबना यह है कि जिन सामाजिक विद्रूपताओं से मुक्ति के लिए पश्चिमी समाज छटपटा रहा है, हम उन्हें गले लगा रहे हैं। पश्चिमी समाज हमें अपने उत्पाद खपाने के बाजार के रूप में देखता है। उसे सौंदर्य प्रसाधन बेचने थे तो लगभग अद्र्धनग्न स्त्री को रैंप पर उतारना शुरू कर दिया। हमारे देश की कुछ सुंदरियों को विश्व सुंदरी का खिताब दे दिया। आंकड़े उठाकर देखें तो इनके विश्व सुंदरी बनने के बाद भारत में सौंदर्य प्रसाधनों की रिकार्ड बिक्री बढ़ी। नतीजतन गली-मोहल्लों, स्कूल-कालेजों तक में सौंदर्य प्रतियोगिताओं के नाम पर अद्र्धनग्न फूहड़ प्रदर्शन होने लगे। कवि बलजीत ऐसे हालात पर व्यंग्य करता लिखता है :-
पश्चिम का हम पर चढ़ा, ऐसा गहरा रंग,
उलट-पलट सब हो गए, रहन-सहन के ढंग।
इसमें दो राय नहीं कि काम जगत का मू
ल है। सृजन का आधार है। लेकिन उसकी अपनी मर्यादाएं हैं। सामाजिक वर्जनाएं भी हैं। मानवता व पशुता का अंतर है। काम, क्रोध, मद, लोभ सब जीवन के अंग हैं जिसके लिए संयम जरूरी है। प्रेम की भी एक उम्र है। इसमें अराजकता समाज के लिए घातक है। समाज में आज मूल्यों के बिखराव का जो दौर जारी है, उसके कारण समाज विज्ञानियों को तलाशने होंगे। यदि समय रहते इस घातक प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के प्रयास न हुए तो आने वाले समय में यौन कुंठाओं के विस्फोट से भारतीय सामाजिक ढांचे को तार-तार होने का खतरा पैदा हो जाएगा। भारतीय दर्शन का उदाहरण देते हुए कवि योगेंद्रनाथ शर्मा अरुण सलाह देते हैं :-
जो भी जीते वासना, इंद्रियजित कहलाये,
दास वासना का बने, जन्म अकारण जाए।

सम्पादकीय पढने के लिए क्लिक करें

Sunday, September 4, 2011

दैनिक ट्रिब्यून का 4 सितम्बर का सम्पादकीय


सम्पादकीय पढने के लिए यहाँ क्लिक करें 

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए!

Posted On September - 4 - 2011

पिछले छह माह के रिकार्ड तोड़ती खाद्य पदार्थों की महंगाई एक बार फिर दहाई का आंकड़ा पार कर गई है। सरकार द्वारा महंगाई पर काबू पाने के तमाम दावे खोखले साबित हो रहे हैं। आरबीआई द्वारा मार्च, 2010 से अब तक महंगाई पर काबू पाने के लिए जो ग्यारह बार बैंकों की ब्याज दर बढ़ाई गई, वह भी बेअसर नजर आ रही है। अब जब फल, सब्जियों, आलू-प्याज, दूध व प्रोटीन पदार्थों की कीमतें तेजी से बढ़ रही हैं, देश के वित्तमंत्री इसे चिंताजनक बताते हुए खाद्य आपूर्ति में सुधार की बात कर रहे हैं। बात तो अब चिंता से ऊपर पहुंच गई तो आपूर्ति में सुधार की बात की जा रही है। वास्तव में महंगाई रोकने के नाम पर केंद्र सरकार जो हवाई कसरतें करती रही है, उसका कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आ रहा है। अर्थशास्त्री लगातार कह रहे हैं कि मौद्रिक उपायों से महंगाई कम होने वाली नहीं है। जरूरत महंगाई के वास्तविक कारणों को समझने की है। लेकिन केंद्र सरकार के मंत्री जैसे गैर-जिम्मेदाराना बयान जारी करते रहे हैं, उससे महंगाई थमने की बजाए बढ़ती रही है। प्रधानमंत्री कहते हैं कोई जादू की छड़ी नहीं है। सरकार के हाथ में कानून का डंडा तो है, बिचौलियों व जमाखोरों के खिलाफ सख्त कार्रवाई क्यों नहीं होती? जब वित्तमंत्री कहते हैं महंगाई गायब नहीं होगी तो महंगाई बढ़ाने वालों के हौसले बुलंद होते हैं। कृषि मंत्री के महंगाई बढ़ाने वाले बयान किसी से छिपे नहीं हैं। यह एक हकीकत है कि महंगाई कुशासन की देन है। देश के हुक्मरानों पर तंज़ करते हुए कवि दुष्यंत ने ठीक ही लिखा है :-
भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है, जेरे-बहस ये मुद्दआ।
वास्तव में देश में आर्थिक उदारीकरण के दौर में जो असमान आर्थिक विकास हुआ है उसी का नतीजा है कि खेती की कीमत घटी है और खेत महंगे हो गए हैं। कामगार हाशिये पर आये और बिचौलिये मालामाल हो गए। किसान बदहाल है और मंडियों में बैठा ठेकेदार व आढ़ती मोटी कमाई कर रहे हैं। गैर-खेती कार्यों के लिए बिल्डरों द्वारा मोटे मुनाफे के साथ ज़मीनों की जो खरीद-फरोख्त शुरू हुई उसने खेती के क्षेत्रफल को कम किया। इसके फलस्वरूप उत्पादन कम हुआ। बाजार में खाद्य पदार्थों की कालाबाजारी तथा दुकानदारों के मोटे मुनाफे ने महंगाई को हवा दी। सरकारों की तुगलकी नीतियां कालाबाजारी व मुनाफाखोरी पर अंकुश लगाने में नाकाम रहीं। पिस रहा है तो आम आदमी। सरकार सिर्फ बयानबाजी कर रही है। यूपीए सरकार की दूसरी पारी शुरू होते ही महंगाई का जो दौर शुरू हुआ वह थमने का नाम नहीं ले रहा है। इस भयावह महंगाई को देखकर कैफी आजमी ने शायद यह पंक्ति लिखी होगी :-
ऐसी महंगाई है कि चेहरा भी,
बेच के अपना खा गया कोई।
यह एक हकीकत है कि समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता ही महंगाई के मूल में है। ऐसे तमाम सामाजिक कारण हैं जिनके चलते महंगाई को गति मिली है। समाज के एक तबके की आय अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है तो दूसरी ओर आधी जनसंख्या ऐसी है जो सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक बीस रुपये रोज में जीवनयापन कर रही है। एक तरफ होटलों में सार्वजनिक व सामाजिक समारोहों में रोज लाखों लोगों का खाना बर्बाद हो जाता है तो दूसरी तरफ एक तबके को दो वक्त की रोटी नहीं मिल रही है। एक तरफ भूख है तो दूसरी तरफ लाखों टन अनाज गोदामों में सड़ रहा है। खुले आसमान तले अनाज सड़ रहा है। अनाज का भंडारण वैज्ञानिक तरीके से नहीं हो पा रहा है। इसी हालात पर तंज़ करते हुए कवि स्वयं योगेन्द्र बख्शी लिखते भी हैं :-
आंसू की यह डुगडुगी नाच रहे सब लोग,
कोई रोटी चाहता कहीं अपच का रोग।
बढ़ती महंगाई और बढ़ती ब्याज दरों का नकारात्मक असर हमारे औद्योगिक उत्पादन व विकास दर पर भी पड़ रहा है। आर्थिक विकास की दर 7.7 फीसदी घटकर रह गई है। अब खाद्य मुद्रास्फीति दर पांच महीने में दूसरी बार दहाई के अंक तक जा पहुंची है। अब यदि रिजर्व बैंक महंगाई पर काबू पाने के लिए ब्याज दरों को बढ़ाता है तो निश्चय ही आर्थिक विकास बाधित होगा। उद्योग-जगत व व्यापारिक घराने ब्याज दरों में बढ़ोतरी को आर्थिक विकास के लिए घातक बता रहे हैं। वास्तव में होना तो यह चाहिए कि देश में दूसरी हरित क्रांति लाई जाए। पहली हरित क्रांति का लाभ कुछ चुने राज्यों को ही मिला था। अब तो इसे समग्र रूप से पूरे देश में लाया जाना चाहिए। जरूरत इस बात की है कि खाद्य आपूर्ति में सुधार लाया जाए, खाद्य पदार्थों का वैज्ञानिक ढंग से सुरक्षित भंडारण किया जाये। इसके साथ ही कालाबाजारी करने वालों तथा बिचौलियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाए। लेकिन सरकार इस दिशा में गंभीर नजर नहीं आती। ऐसे हालात पर कवि रघुविंद्र यादव सटीक टिप्पणी करते हैं :-
भ्रष्ट व्यवस्था कर रही, सारे उल्टे काम,
अन्न सड़े गोदाम में, भूखा रहे अवाम।
उधर एशियन डेवेल्पमेंट बैंक भी चेतावनी दे रहा है कि यदि उपभोक्ता सामग्री की बढ़ती कीमतों पर नियंत्रण न लगा तो इसका नकारात्मक प्रभाव उभरती अर्थव्यवस्था के विकास पर पड़ेगा। खाद्य पदार्थों व ईंधन की बढ़ती कीमतों की वजह से महंगाई लगातार बढ़ रही है जो सामाजिक असंतोष का कारण बनता जा रहा है। घरेलू बाजार में बढ़ती मांग से यह महंगाई और बढऩे की आशंका है। सरकार को समझ लेना चाहिए कि मौद्रिक उपायों से महंगाई थमने वाली नहीं है। इसके लिए सरकार को कुछ कड़े फैसले लेने होंगे। आपूर्ति व्यवस्था में सुधार उसकी प्राथमिकता होनी चाहिए। जनता अब अधिक समय तक ये हालात बर्दाश्त करने वाली नहीं है। जैसा कि कवि दुष्यंत ने लिखा भी है :-
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

Sunday, August 14, 2011

14 अगस्त के दैनिक ट्रिब्यून के सम्पादकीय में दोहा

शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

Posted On August - 14 - 2011

आज़ादी की 64वीं वर्षगांठ मनाते वक्त तक भारतीय लोकतंत्र की आज यह स्थिति है कि सात समन्दर पार से अमेरिका नसीहत दे रहा है—’भारत सरकार शांतिपूर्ण प्रदर्शनों से निपटने के तरीकों में उचित लोकतांत्रिक संयम का परिचय दे।’ निश्चित रूप से दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश को यह नसीहत देना अटपटा लग सकता है। इस बयान से तिलमिलाई भारत सरकार ने टिप्पणी पर तल्ख प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान में निहित है और देश के 1.2 अरब नागरिक इसका प्रयोग करते हैं।’ लेकिन इसी बीच देश के गृहमंत्री का बयान आता है कि लोकपाल मुद्दे पर अन्ना हजारे की अनशन पर जाने की योजना अनुचित है। भारत सरकार व गृहमंत्री के बयानों मेें जो विरोधाभास झलकता है, उसी का नतीजा है कि अमेरिका को हमारे अंदरूनी मामलों में बयानबाजी का मौका मिलता है। स्वतंत्रता दिवस की वेला पर अन्ना हजारे के अनशन स्थल की अनुमति को लेकर केंद्र, दिल्ली सरकार व दिल्ली पुलिस-प्रशासन द्वारा जो नाटक पिछले दिनों से किया जा रहा है उसे कतई लोकतांत्रिक व अभिव्यक्ति की आज़ादी तो नहीं कहा जा सकता। यह एक हकीकत है कि लोकपाल बिल के मुद्दे पर अन्ना हजारे सरकार को कठघरे में खड़ा करने में सफल रहे हैं। सरकार की नीयत का खोट जगजाहिर हुआ। चांदनी चौक इलाके का सर्वेक्षण इसकी मिसाल है। बहरहाल, सरकार अन्ना की मुहिम से हिली तो जरूर नज़र आती है। शायद ऐसे ही हालात के लिए कवि दुष्यंत यह पंक्तियां लिख गए हैं :-
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
वास्तव में आज जिस तरह घोटाले पर घोटाले उजागर हुए हैं और कैग से लेकर अदालतों ने सीधे-तौर पर सरकार के मंत्रियों व मुख्यमंत्रियों को दागी ठहराया है, उससे केंद्र सरकार में खासी बेचैनी है। उसकी इसी बेचैनी का नतीजा है कि यह अन्ना हजारे व बाबा रामदेव के खिलाफ मोर्चे खोले हुए है। अमेरिका की टिप्पणी पर बौखलाई सरकार यह क्यों भूल जाती है कि उसने बाबा रामदेव के आंदोलन को रात के अंधेरे में कुचला, वह कौन-सी लोकतांत्रिक प्रक्रिया थी? क्या वह सब कुछ एक लोकतांत्रिक आंदोलन को कुचलने का तानाशाही तरीका नहीं था? उसके बाद भी केंद्र के इशारे पर नाचने वाली उसकी तमाम एजेंसियां व सरकारी विभाग बाबा रामदेव की जिस तरह दुराग्रह से जांच-पड़ताल कर रहे हैं क्या उसे लोकतांत्रिक कदम कहा जा सकता है? क्या वाकई सरकार अभिव्यक्ति की आज़ादी का सम्मान करती है? सही मायनों में देखें तो सरकार से देश संभल नहीं रहा है। शासन के तदर्थवादी तौर-तरीके व्यवस्था को कुव्यवस्था में तब्दील करते जा रहे हैं। इस दौरान सरकार के मंत्रियों, नौकरशाहों व दलालों के नाम करोड़ों-अरबों रुपये के घोटालों में शामिल नज़र आये हैं, उससे जनता की नज़रों में सरकार की साख धूल-धूसरित ही हुई है। ऐसे माहौल में जनभावनाओं को शब्दों में गूंथते हुए कवि रघुविन्द्र यादव बेबाक टिप्पणी कर ही देते हैं :-
लूट रहे हैं देश को, कलमाडी, सुखराम,
मिलकर राजा, राडिया चूस गए सब आम।

खबर आई है कि करोड़ों रुपये के कर-चोरी के मामले में फंसे हसन अली खान को जमानत मिल गई, वह भी सिर्फ पांच लाख के मुचलके पर। बहुत संभव है कि सौ-हज़ार रुपये के मामलों में अनेक लोग जेलों में सड़ रहे होंगे। देश में करोड़ों के घोटाले करने वाले जोड़-तोड़ के सहारे बाहर स्वच्छंद घूम रहे हैं। धनबल, बाहूबल व राजनीतिक प्रभाव के चलते पिछले कई दशकों से ऐसा होता आया है। बड़े-बड़े घोटालों में जुड़े बड़े-बड़े राजनेताओं का बाल-बांका भी नहीं हुआ। पिछले दिनों कुछ मंत्री जरूर तिहाड़ जेल की हवा खा रहे हैं लेकिन उसके मूल में उनके राज्यों में हुए राजनीतिक परिवर्तन, बड़े नेताओं को बचाने की कवायद व जनता का दबाव ही है। वास्तव में बड़े लोगों को बचाने में तो पूरी मशीनरी लग जाती है। जैसा कि कवि किशोर तिवारी तंज़ करता है :-
शायद किसी वजीर की गर्दन फंसी हुई,
हुक्काम खुद सबूत मिटाने में जुटे हैं।

लेकिन एक टकसाली सत्य यह भी है कि हमने भी एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका पिछले छह दशक में नहीं निभाई। हमने छोटे-छोटे स्वार्थों मसलन क्षेत्रवाद, जातिवाद व सांप्रदायिकता को हवा देते हुए ऐसे अपरिपक्व प्रतिनिधियों को लोकसभा व विधानसभाओं में भेजा कि उसका खमियाजा आज देश को भुगतना पड़ रहा है। ऐसी सोच के चलते त्रिशंकु सरकारें केंद्र में आई, फिर सांसदों-विधायकों की खरीद-फरोख्त का दौर चला। देश की संसद में करोड़ों रुपये को नोटों की गड्डियां लहराई गईं। कहीं न कहीं इन हालात के लिए हम भी दोषी हैं। हमने 15 अगस्त ओर 26 जनवरी को राष्ट्रभक्ति के गीत बजाये और इसे अवकाश के रूप में मनाने तक सीमित कर दिया। हमें देश की नहीं, बल्कि अपनी चिंता रही। हमारी इसी सोच को नंगा करते हुए उर्मिलेश लिखते भी हैं :-
आज बस्ती में उठा है जो धुआं उठता रहे,
आग किसके घर लगी पढ़ लेंगे कल अखबार में।

वास्तव में किसी भी लोकतंत्र की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उसके नागरिक अपने अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों का किस जिम्मेदारी से निर्वहन करते हैं। अपनी सुविधाओं के लिए जब हम कायदे-कानून तोड़ते हैं तो दूसरे के अधिकारों का अतिक्रमण करते हैं। आज देश में जो भ्रष्टाचार का राग अलापते हैं, उसके मूल में कहीं न कहीं हम भी जिम्मेदार हैं। हमने चुनाव व्यवस्था को इतना खर्चीला बना दिया है कि चुनाव लडऩा करोड़पतियों का खेल बन गया है। यही वजह है कि देश की संसद में तीन सौ से अधिक करोड़पति बैठे हैं। एक ईमानदार, जिम्मेदार व साधारण पृष्ठभूमि का व्यक्ति संसद तो क्या ग्राम प्रधान का चुनाव नहीं लड़ सकता। इसके लिए किसी हद तक हम भी जिम्मेदार हैं। समाज में मानवीय मूल्यों का पतन भी एक अहम कारण है कि सामाजिक विद्रूपताएं उफान पर हैं जो राजनीतिक विद्रूपताओं को जन्म देती हैं। वास्तव में व्यवस्था परिवर्तन की आग हमारे दिलों में उठनी चाहिए। जैसा कि कवि लिखता भी है :-
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
यहाँ क्लिक करें

Sunday, July 31, 2011

दैनिक ट्रिब्यून के 31 जुलाई अंक के सम्पादकीय में एक दोहा

तलवार से मौसम कोई बदला नहीं जाता

Posted On July - 31 - 2011
सामयिक और ज्वलंत मुद्दों पर यूं तो फिल्म बनाना आसान नहीं होता। बॉलीवुड में गिनती के ऐसे निर्माता-निर्देशक हैं जिन्होंने यह कोशिश की है। इनमें अब निर्माता-निर्देशक अजय सिन्हा भी शामिल हो गये हैं। अपना मकान और एक ऑफिस बेचकर देश के एक ज्वलंत मुद्दे पर ‘खाप’ फिल्म बनाने वाले अजय सिन्हा को तब घोर निराशा का सामना करना पड़ा जब खापों के फरमान इस फिल्म ‘खाप’ पर भारी पड़े। पुलिस-प्रशासन मूकदर्शक बना रहा और फिल्म सिनेमाघरों तक पहुंच ही नहीं पाई। यद्यपि पूरे देश में फिल्म रिलीज हुई और दर्शकों का ठीक-ठाक प्रतिसाद भी मिला। फिल्म के केंद्र में ऑनर किलिंग जैसा गंभीर मुद्दा था जिसके बहाने बहुत कुछ कहने की कोशिश की गई। फिल्म ने गोत्र विवाद को भी छुआ है। निर्माता ने एक गंभीर विषय को सहजता से उकेरा है। लेकिन सवाल उठता है कि हमारा समाज कितना असहिष्णु हो चला है कि चंद मु_ीभर लोगों के प्रतिरोध के चलते लाखों लोग एक हकीकत से रूबरू होने से वंचित रह गये। सीधे-सीधे यह अभिव्यक्ति की आज़ादी पर कुठाराघात है। स्वनामधन्य संस्थाओं के तालिबानी फरमानों के चलते एक फिल्म की भ्रूणहत्या हो गई। लेकिन यह भी एक हकीकत है कि फरमानों से सबकुछ नहीं बदला जा सकता। देश के दर्शकों ने काला सच देखा। ऐसे ही लोगों से मुजफ्फर वारसी कहते हैं :-
फरमानों से पेड़ों पर कभी फल नहीं लगते,
तलवार से मौसम कोई बदला नहीं जाता।
इसमें दो राय नहीं कि पुलिस-प्रशासन की उदासीनता व नेताओं की दोगली भूमिका के चलते फिल्म सिनेमाघरों तक नहीं पहुंच पाई। इसके पीछे सीधे-सीधे वोट बैंक की राजनीति भी काम करती है। लेकिन इस तूफान के खिलाफ कुछ दीये जरूर जलते रहे। हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति समेत कई बुद्धिजीवी संगठनों ने फिल्म के बहिष्कार के खिलाफ आवाज उठाई लेकिन उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह दबकर रह गई। इस मुद्दे पर उन्हें व्यापक जनसमर्थन से वंचित होना पड़ा। रूढि़वादी व खाप समर्थकों के विरोध पर तंज करते हुए प्रकाश फिक्री लिखते हैं :-
ऐसा भी क्या मिजाज कि इतना उबल पड़े,
बस इक जरा-सी बात पर खंजर निकल पड़े।
इसमें दो राय नहीं कि अपने देश में संविधान द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को बोलने और अभिव्यक्ति का अधिकार दिया गया है। इसका हनन करने की आज़ादी किसी को नहीं दी जा सकती। विरोध के लिए हमारे पास तमाम संवैधानिक अधिकार हैं। यदि फिल्म में कुछ अनुचित पाया जाता है तो पुलिस-प्रशासन से इसकी शिकायत की जा सकती है। यदि फिल्म से कोई आपत्ति है तो सेंसर बोर्ड में विरोध व्यक्त किया जा सकता है। लेकिन महज विरोध के लिए विरोध करना तर्कसंगत नहीं जान पड़ता। वास्तव में फिल्म विरोधियों को भी सहिष्णुता का परिचय देना चाहिए। पहले फिल्म देखनी चाहिए फिर विरोध दर्ज करवाना चाहिए। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं हो पाया। ये सरासर नागरिक अधिकारों का हनन सरीखा है। विरोध करते वक्त यह ध्यान रखना चाहिए कि विरोध कानूनसम्मत हो और संवैधानिक मर्यादाओं को अक्षुण्ण बनाये रखा जाए। ऐसे ही महज विरोध के लिए विरोध करने वालों पर तंज़ करते हुए कवि केशू लिखता है :-
जो तर्क से खाली होते हैं पूरे,
वे फौरन तलवार हैं तान लेते।
इसमें दो राय नहीं कि इस देश में खाप पंचायतों का गौरवशाली अतीत रहा है। सामाजिक सरोकारों के प्रति समर्पित इन संस्थाओं ने ग्राम्य जीवन की विसंगतियों को दूर करने में महती भूमिका निभाई। विदेशी आक्रांताओं के भारत आने पर ये खाप-पंचायतें एकजुट हो हमलावरों का डटकर मुकाबला करती रही हैं। छोटे-मोटे विवादों का निपटारा हो या फिर सामाजिक विसंगतियों पर अहम फैसला लेना हो, ये खाप पंचायतें निर्णायक भूमिका निभाती रही हैं। ऐसी ही पंचायतों की सफल कार्यप्रणाली देखकर गांधी जी ने सर्वाधिकार संपन्न ग्राम-पंचायतों का सपना देखा था जिसमें स्वावलंबी ग्राम समाज का सपना साकार करने की कोशिश की गई। पहले कभी भी खाप-पंचायतों से किसी को मौत का फरमान जारी करते नहीं सुना गया। लेकिन कालांतर राजनीतिक हस्तक्षेप व चौधराहट दिखाने की कवायद जारी होने लगी, जिसके चलते देश में खापों की छवि प्रभावित हुई। लेकिन आज सारे देश में खापों की जो छवि उकेरी जा रही है उसका जिक्र रघुविन्द्र यादव की पंक्तियों में मिलता है :-
गला प्यार का घोंटते, खापों के फरमान,
जाति, धर्म के नाम पर, कुचल रहे अरमान।
खाप पंचायतों की इस बात से सहमत हुआ जा सकता है कि रिश्तों की गरिमा व परंपराओं का निर्वहन नई पीढ़ी को करना चाहिए। मां-बाप बड़े अरमानों से बच्चों को पालते हैं और धूमधाम से उनकी शादी करने का मन बनाते हैं। ऐसे में बच्चों को भी उनकी भावनाओं का सम्मान करना चाहिए। हम कितने भी आधुनिक हो जाएं अंग्रेज नहीं हो सकते हैं। तमाम विदेशी आक्रमणों व सैकड़ों साल की गुलामी के दौर भी हमें कमजोर न कर सके तो इसके मूल में हमारे रीति-रिवाज, संस्कार आदि रहे हैं। लेकिन एक टकसाली सत्य यह भी है कि प्यार की सज़ा मौत नहीं हो सकती है। नये जमाने के बच्चों को जन्म से ऐसे संस्कार दिये जाने चाहिए कि वह जल्दबाजी में कोई गलत फैसला न लें जो परंपरा व परिजनों को आहत करता हो। टीवीजनित संस्कारों ने तमाम सामाजिक वर्जनाओं व सदियों पुरानी परंपराओं को ध्वस्त किया है। लेकिन हमें बीच का रास्ता तो निकालना ही होगा। कहीं ऐसा न हो कि हमें किसी मुहब्बत का हश्र देखकर शकील बदायूंनी की ये पंक्तियां दोहरानी पड़ें :-
ऐ मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया,
जाने क्यों आज तेरे नाम पे रोना आया।

http://dainiktribuneonline.com/2011/07/%E0%A4%A4%E0%A4%B2%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%B8%E0%A5%87-%E0%A4%AE%E0%A5%8C%E0%A4%B8%E0%A4%AE-%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%88-%E0%A4%AC%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BE-%E0%A4%A8%E0%A4%B9%E0%A5%80/

Sunday, July 10, 2011

दैनिक ट्रिब्यून के सम्पादकीय में दो दोहों का उल्लेख

…देवता खामोश है !

Posted On July - 10 - 2011

तिरुवनंतपुरम स्थित पद्मनाभस्वामी मंदिर से एक लाख करोड़ रुपये का खजाना मिलने के समाचारों ने आम आदमी को चौंकाया। हालांकि अब सुप्रीम कोर्ट ने अपनी बनाई गई सात सदस्यीय समिति को बाकी तहखानों को खोलने से रोक दिया है जिनको लेकर आम जनमानस में भारी उत्सुकता बनी हुई थी। खंडपीठ ने याचिकाकर्ता त्रावणकोर के राजकुमार रहे राजा मार्तण्ड वर्मा के आग्रह पर ऐसा किया। राजघराने की इन्हें खोलने से होने वाले अनिष्ट की आशंका पर शीर्ष अदालत ने यह फैसला सुनाया है। वास्तव में आज इस मंदिर की पवित्रता व सुरक्षा को बनाये रखना पहली प्राथमिकता है। सुकूनभरी बात यह है कि खजाने पर राजपरिवार ने दावा नहीं जताया है। इस खजाने के मिलने से आम जनमानस को कई सवालों के जवाब मिले तो कई नये सवाल भी पैदा हुए हैं। पिछले दिनों एक स्वामीजी की अकूत संपत्ति मिलने की चर्चाओं पर विराम लगा भी नहीं था कि श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर से एक लाख करोड़ का खजाना मिलने ने देश के अन्य शीर्ष सूची पर विराजमान समृद्ध धर्म-स्थलों को पीछे धकेल दिया। इन अकूत धन-संपदा वाले मंदिरों ने एक सवाल का जवाब तो दे दिया कि क्यों भारत को सोने की चिडिय़ा कहा जाता था। यह भी कि इस अकूत खजाने के प्रलोभन में तमाम विदेशी आक्रांताओं ने बार-बार भारत पर हमला करके मंदिरों में जमकर लूटपाट की। बहुचर्चित सोमनाथ मंदिर का उदाहरण हमारे सामने है, जहां मोहम्मद गजनवी ने सात बार आक्रमण किये। बहरहाल, ताजा प्रकरण में भी मीडिया ने जिस तरह खजाने की खबरों को सनसनी से परोसा है, उससे मंदिर की सुरक्षा को भारी खतरा पैदा हो गया है। खबरों को पढ़कर दुनियाभर के शातिर चोर सक्रिय हो गये हैं क्योंकि संपत्ति को लेकर अनावश्यक उत्सुकता बन रही है। पूरी दुनिया में चोरों द्वारा धार्मिक स्थलों को निशाना बनाये जाने की खबरें अकसर आती रहती हैं। जैसा कि कलियुगी आस्थाविहीन लोगों पर तंज़ करते हुए कवि रघुविन्द्र यादव लिखते भी हैं :-
मंदिर, मस्जिद, चर्च पर पहरा दे दरबान,
गुंडों से डरने लगे, कलियुग के भगवान।
ऐसे में कई लोगों के मन में सवाल उठ सकता है कि सृष्टि के रचयिता व भक्तों को सर्वस्व देने वाले भगवान के मंदिर में इतने बड़े खजाने का क्या औचित्य है? क्या वाकई भगवान अपने धनाढ्य व साधन-संपन्न भक्तों के चढ़ावे से प्रसन्न होते हैं? यह हमारी मनोगं्रथि है कि लेनदेन से भगवान प्रसन्न होते हैं? कई धार्मिक व पौराणिक कथाओं में इस बात का स्पष्ट जिक्र मिलता है कि महज श्रद्धा व कदली फल व आटे के चूर्ण से की गई सच्ची प्रार्थना से भगवान ने विप्र ब्राह्मण व लकड़हारे के कई जन्म सुधार दिये। एक मेहनतकश आम आदमी के पास क्या इतना पैसा संभव है कि वह धार्मिक स्थलों में सोना-चांदी चढ़ा सके? यह निर्विवाद है कि बड़े बिजनेसमैन व शासक वर्ग की तरफ से धार्मिक स्थलों में मोटा चढ़ावा आता है। पहले यह राजाओं, जमींदारों व सत्ताशीर्ष से जुड़े व्यक्तियों की तरफ से आता था। सवाल यह भी है कि उनके पास यह पैसा कहां से आता है? पैसा तो आम आदमी से वसूला गया होता है। यह बात अलग है कि वसूलने का आधार जायज था या नाजायज? सवाल यह भी है कि क्या यह चढ़ावा श्रद्धा-भाव से चढ़ाया गया है? या फिर इसमें दिखावा या आडम्बर है? या फिर अपने उन कर्मों का पछतावा है जिसमें उन्होंने यह संपत्ति अर्जित की? ऐसे ही तमाम अनगिनत प्रश्न इससे जन्म लेते हैं। ऐसे में जमीनी हकीकत को बताते हुए कवि शायक लिखता है :-
बहुत देखे हैं मानव के बनाये झूठ के गुम्बद,

स्वयम् भगवान के हाथों रची सच्चाइयां देख।
वास्तव में धार्मिक जीवन में वक्त के साथ तमाम तरह की विद्रूपताएं जुड़ गईं। ईमानदारी से देखें तो आज धर्म देश का सबसे बड़ा कारोबार बन चुका है। धार्मिक आडम्बर ने आस्था की पवित्रता को दरकिनार कर दिया है। मंदिरों में मोटे चढ़ावे व सामान्य चढ़ावे की लगने वाली कतारें बताती हैं कि धर्म के ठेकेदार व्यक्ति की आस्था नहीं उसकी हैसियत से भक्त का मूल्यांकन करते हैं। संपन्न भक्तों को शार्टकर्ट से दर्शन व आम आदमी को घंटों की प्रतीक्षा कराना इसी कड़ी का हिस्सा है। ऐसे माहौल पर तंज़ करते हुए किशोर तिवारी कहते हैं :-
हर मसीहा अब दयारे-संग-सा खामोश है,
धर्म धंधा हो गया है, देवता खामोश है।
केरल के श्रीपद्मनाभस्वामी मंदिर के बारे में सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणियों का स्वागत किया जाना चाहिए। शीर्ष अदालत ने मंदिर की पवित्रता व आस्था को अक्षुण्ण बनाये रखने के आदेश राज्य सरकार को दिये हैं। अदालत ने शाही खानदान से पूछा है कि मंदिर की क्या परंपराएं हैं और उन्हें कैसे अक्षुण्ण रखा जाये? यहां तक कि अदालत ने जनभावनाओं का सम्मान करते हुए परंपराओं को कानून के ऊपर तरजीह दी है। लेकिन इसी के साथ उसने राज्य की सरकार को चेताया है कि मंदिर परिसर से मिली संपत्ति का तमाशा न बनाया जाए। मीडिया में इस संपत्ति का जिस तरह से प्रचार किया जा रहा है उस पर चिंता जताते हुए अदालत ने कहा है कि इससे लोगों में भगवान को छोड़कर मंदिर में मिले हीरे-जवाहारात के प्रति ज्यादा उत्सुकता पैदा हो रही है जो चिंता की बात है। ऐसे में मंदिर व संपत्ति की सुरक्षा के लिए कड़े कदम उठाने की आवश्यकता महसूस की जा रही है।
लेकिन यहां एक नैसर्गिक प्रश्न भी उठता है कि देश के धार्मिक स्थलों में विद्यमान अथाह धन-संपदा का रक्षण कैसे किया जाए? कैसे इस धन को राष्ट्रीय धरोहर के रूप में संरक्षित किया जाए? सरकारी तंत्र पर तो जनता का भरोसा कम है, इसलिए न्यायालय द्वारा देश के तमाम धार्मिक स्थलों की बहुमूल्य संपदा के रखरखाव के लिए एक स्वायत्तशासी बोर्ड के गठन पर विचार किया जाना चाहिए। आज देश में धार्मिक स्थानों में जमापूंजी की बंदरबांट की खबरें अकसर सामने आती रही हैं। कुछ लोग जो धर्म को धंधा बनाकर अपने स्वार्थों को पूरा कर रहे हैं उन पर भी अंकुश लगाया जाना जरूरी है। ‘इसलिए जारी हैं उसके नाम पर मक्कारियां, सबको पक्का इल्म है परमात्मा खामोश है।' यह भी विचारणीय प्रश्न है कि जिस देश में अथाह गरीबी हो और धार्मिक स्थल धन-संपदा से ठसाठस भरे हों, वहां इसके मध्य संतुलन कैसे कायम हो? दरिद्रनारायण की सेवा के बारे में भी हमें सोचना होगा, मानव-सेवा से भी भगवान अवश्य प्रसन्न होते हैं। कहीं ऐसा न हो कि आर. यादव लिखने को फिर मजबूर हों :-
पत्थर के भगवान को, लगते छप्पन भोग,
मर जाते फुटपाथ पर, भूखे-प्यासे लोग।

दैनिक ट्रिब्यून के 10 जुलाई के अंक में सम्पादकीय में नागफनी के फूल से दो दोहों का उल्लेख किया गया है.

Sunday, July 3, 2011

दैनिक ट्रिब्यून के सम्पादकीय में प्रकाशित दोहा

…इसी को मेरी उड़ान लिखना

Posted On May - 15 - 2011

इसमें कोई दो राय नहीं कि देश में आज नारी-शक्ति का परचम लहरा रहा है। हाल के विधानसभा चुनावों में ममता की आंधी और जय ललिता की जय-जयकार ने यह साबित भी किया। लेकिन इन बड़ी खबरों के बीच देश के अशांत इलाके जम्मू-कश्मीर से एक सुकूनभरी खबर आई। आतंकवाद से ग्रस्त बारामूला जनपद की वुस्सन ग्राम पंचायत के लिए हुए चुनाव में एक कश्मीरी पंडित परिवार की महिला आशा ने जीत का परचम लहराया। खबर इसलिए महत्वपूर्ण है कि उग्रवाद से ग्रस्त इस इलाके में कश्मीरी पंडित उंगलियों पर गिने जाते हैं और गांव मुस्लिम-बहुल है। ग्रामीणों के भारी दबाव के बाद आशा ने चुनाव लड़ा और जीता। इस घटना के निहितार्थ स्पष्ट हैं कि आम जनमानस संकीर्णताओं की बेडिय़ां तोडऩा चाहता है। इस हकीकत से इनकार नहीं किया जा सकता कि पड़ोस से बहने वाली ज़हरीली हवाओं ने कश्मीर की फिजाओं में ज़हर घोला अन्यथा आम आदमी तो सांप्रदायिक सौहार्द में विश्वास रखता है। तभी तो गिने-चुने कश्मीरी पंडित आतंकवादियों की तमाम धमकियों के बावजूद घाटी में जमे हैं, ये सब ग्रामीणों के संरक्षण से ही संभव है। उनकी मनोदशा को कवि विपिन के शब्दों में कुछ इस तरह बयां किया जा सकता है :-
हुआ हूं पिंजरे में बंद तो क्या, मेरा सफर तो रुका नहीं है,
मैं अपने पर फडफ़ड़ा रहा हूं इसी को मेरी उड़ान लिखना।
आशा पंडित की जीत के मायनों को समझने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि आम आदमी मु_ीभर आतंकियों के आतंक से मुक्त होना चाहता है। यह कदम उन आतंकियों के मुंह पर करारा तमाचा भी है जो घाटी को भारत से अलग करने की मुहिम चला रहे हैं। इससे यह भी संदेश सामने आया कि आम आदमी आतंक के कारोबार से आजिज आ चुका है। यदि सरकार की ओर से घाटी में शांति बहाली की ईमानदार कोशिश हो तो लोग आतंकवाद के खिलाफ खड़े हो सकते हैं। वास्तव में नौकरशाही के निकम्मेपन या राजनेताओं के अदूरदर्शी फैसले कश्मीर समस्या के मूल में हैं। अन्यथा कश्मीर के लोग तो बहादुरशाह जफर की इस बात पर अमल करना चाहते हैं :-
कांटे चुनते हुए चमन में रहूं,
ठोकरें खाकर भी वतन में रहूं।
इस घटनाक्रम को आतंक से जूझती घाटी में बदलाव की बयार के रूप में देखा जाना चाहिए। पहले तो आतंकवादी घाटी में पंचायत चुनाव होने देना ही नहीं चाहते थे लेकिन इसके बावजूद दशक में दूसरी बार संपन्न हुए शांतिपूर्वक चुनावों ने आतंकियों के मंसूबों पर पानी फेर दिया। फिर आशा की जीत ने कश्मीरी पंडितों के लिए उम्मीद जगाई है। आतंकवाद की मार झेलकर देश में ही शरणार्थियों का जीवन जीने को अभिशप्त कश्मीरी पंडितों की वापसी के लिए भी नये सिरे से माहौल बनाने की जरूरत है। आतंकी भले ही कुछ कहें आम कश्मीरी पंडितों का स्वागत करेगा, ऐसी उम्मीद तो जगी ही है। ऐसे कश्मीरी पंडितों के लिए यह संदेश अशोक अंजुम के शब्दों में दिया जा सकता है :-
वे जो विस्थापित हुए तज कश्मीरी घाट,
घाटी उनकी रात-दिन जोह रही है बाट।
वैसे आशा के परिजनों की मुक्तकंठ से प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने लगातार आतंकी हमलों के बावजूद कश्मीर घाटी नहीं छोड़ी। उन्होंने अपनी जन्मभूमि वुस्सन को छोडऩा स्वीकार नहीं किया। इसमें मुस्लिम बहुल ग्रामीणों की प्रशंसा करनी पड़ेगी जिन्होंने अल्पसंख्यक चार कश्मीरी पंडितों की रक्षा की। आशा के परिजन नहीं चाहते थे कि वह चुनाव लड़े। लेकिन गांव के ही अब्दुल हामिद ने आशा को चुनाव लडऩे को प्रेरित किया। ग्रामीणों के भरपूर सहयोग से ही आशा का चुनाव जीतना संभव हो पाया। ऐसे में सवाल उठना लाजि़मी है कि कश्मीर में आज भी तमाम अमन-पसंद लोग हैं तो आतंकवादियों के खतरनाक मंसूबे कैसे पूरे हो रहे हैं? आखिर केसर की क्यारियों में बारूदी गंध कैसे आई? घाटी से विस्फोटों के अनुबंध कैसे हुए? कुछ ऐसा ही सवाल कवि रघुविन्द्र भी करते हैं :-
गड़बड़ मौसम से हुई या माली से भूल,
आंगन में उगने लगे नागफनी के फूल।
अब लंबा अरसा हो चला है कि कश्मीर उदास है। कश्मीरियों ने आतंकवाद की बड़ी कीमत चुकाई है। आज उनके घावों पर मरहम लगाने की जरूरत है। कश्मीर की वादियों में पहले जैसी रौनक लौटै, हाउसबोट खचाखच भरे रहें और कश्मीर के स्थानीय लोगों को पर्यटन उद्योग से भरपूर रोजगार मिले। आज घायल कश्मीर के गुमराह हुए बेटों को मुख्यधारा से जोडऩे की जरूरत है। सड़कों पर पत्थरबाजी करते नौजवानों के हाथों को सम्मानजनक काम मिले तो फिर वे क्यों सड़कों पर उतरेंगे? यदि घाटी में सब कुछ ठीक-ठाक हो जाए तो फिर हम अमीर कजलबाश की इन पंक्तियों को सार्थक होते देख सकेंगे :-
बस्ती में सब खैर से हैं
यह अखबार पुराना है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि देर-सवेर घाटी का जनजीवन पटरी पर लौटेगा। आशा की जीत घाटी में नई उम्मीद जगाती है। हुर्रियत कांफे्रंस का चरमपंथी धड़ा भी कश्मीरी पंडितों की वापसी के लिए अपील कर रहा है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि देर-सवेर हालात बदलेंगे। बदलाव की बयार कश्मीरियों व विस्थापित पंडितों के जख्मों पर मरहम लगा सके तो इससे अच्छी बात क्या होगी? तब पड़ोसी के नापाक मंसूबे धरे रह जाएंगे, जैसा कि राजकुमार सयान लिखते हैं :-
सीमाओं को ताकते, पाक बने शैतान,
नापाकों की दृष्टि को, लगे ग्रहण सच आन।

http://dainiktribuneonline.com/2011/05/%E0%A4%87%E0%A4%B8%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A5%8B-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%89%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%96%E0%A4%A8%E0%A4%BE/