बुत में न मैं आयत में हूँ न आरती न अज़ान में,
मजबूर की आह में हूँ, मासूम की मुस्कान में।
आये थे मिलने मुझे कब तुम मेरे आवास में,
ढूँढ़ा मुझे तुमने कभी काबा कभी कैलाश में,
मैं बरकतें बरसा रहा हूँ खेत में, खलिहान में,
बुत में न मैं आयत में हूँ न आरती न अज़ान में।
मैने तो हर इंसान में बख्शा खुदाई नूर है,
तुमने लिखे अपने लिए मज़हबी दस्तूर हैं,
ये फर्क तुमने ही किया गीता और कुरान में,
बुत में न आयत में हूँ न आरती न अज़ान में।
मैंने कहा कब आपसे मुझको चढ़ावा चाहिए,
ये भी न चाहा मंदिरों में धूप दीप जलाइए,
इतना ही चाहा आपसे, न खोट हो ईमान में,
बुत में न आयत में हूँ न आरती न अज़ान में।
लडऩे लगे आपस में क्यूँ, मैं आपसे नाराज़ हूँ,
मैं न किसी मंदिर न मस्जि़द के लिए महोताज हूँ,
मुझे कैद करना चाहते क्यूँ तंग बंद मकान में,
बुत में न आयत में हूँ न आरती न अज़ान में।
मजबूर की आह में हूँ, मासूम की मुस्कान में।
आये थे मिलने मुझे कब तुम मेरे आवास में,
ढूँढ़ा मुझे तुमने कभी काबा कभी कैलाश में,
मैं बरकतें बरसा रहा हूँ खेत में, खलिहान में,
बुत में न मैं आयत में हूँ न आरती न अज़ान में।
मैने तो हर इंसान में बख्शा खुदाई नूर है,
तुमने लिखे अपने लिए मज़हबी दस्तूर हैं,
ये फर्क तुमने ही किया गीता और कुरान में,
बुत में न आयत में हूँ न आरती न अज़ान में।
मैंने कहा कब आपसे मुझको चढ़ावा चाहिए,
ये भी न चाहा मंदिरों में धूप दीप जलाइए,
इतना ही चाहा आपसे, न खोट हो ईमान में,
बुत में न आयत में हूँ न आरती न अज़ान में।
लडऩे लगे आपस में क्यूँ, मैं आपसे नाराज़ हूँ,
मैं न किसी मंदिर न मस्जि़द के लिए महोताज हूँ,
मुझे कैद करना चाहते क्यूँ तंग बंद मकान में,
बुत में न आयत में हूँ न आरती न अज़ान में।