विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

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Tuesday, June 7, 2016

विवश खड़ा जनतंत्र - डॉ.रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर'

किरणों को अब लग गया, बदचलनी का चाव।
तम के सागर में रही, डूब धूप की नाव।।

यमुना तट पर राधिका, रोयी खो मनमीत।
सागर खारा हो गया, पीकर अश्रु पुनीत।।

अँधियारा बुनने लगा, सन्नाटे का सूत।  
भीतर-बाहर नाचते, विकृतियों के भूत।।

मंजि़ल आकर हो गई, खड़ी उसी के पास।
जिसके चरणों ने रखा, चलने का अभ्यास।।

सूरज का रथ पंक में, विवश खड़ा जनतंत्र।
बता रहे हैं विज्ञजन, किरणों का षड्यंत्र।।

सत्ता को कुछ शर्म दे, व्यथित मनुज को हर्ष।
मँहगाई को दे दया, मौला तू इस वर्ष।।

उनके सपनों को मिले, सोने वाला ताज।
किन्तु हमें मिलते रहें, रोटी, चटनी, प्याज।।

बैरिन वंशी बज उठी, चलो रचाने रास।
फागुन दुहराने लगा, कार्तिक का इतिहास।।

उमर निगोड़ी क्या चढ़ी, पवन छेड़ता गात।
सरसों सपने देखती, साजन के दिन-रात।।

जिसने मुझको पा लिया, छोड़ दिया संसार।
क्या अकबर की सीकरी, क्या दिल्ली दरबार।।

-डॉ.रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर'

86, तिलक बाईपास रोड़, फीरोजाबाद
9412316779

आया नहीं सुराज - कन्हैयालाल अगवाल 'आदाब'

पाल-पोस स्याना किया, समझा जिसे निवेश।
कागा बनकर उड़ गया, जाने कब परदेश।।

संगम और विछोह दो, प्रीत-प्रेम के अंग।
कांटों और गुलाब का, सदा रहा है संग।।

बरसों से लौटे नहीं, जिनके घर को कंत।
उनको तो सब एक से, सावन, पूस, बसंत।।

हर सपने के साथ है, पहले काली रात।
उसके बिन आता नहीं, कोई नया प्रभात।।

क्या है उसके भाग्य में, नहीं जानता फूल। 
या तो माला में गूँथे, या फिर फाँके धूल।।

नयनों से नयना मिले, नयन हो गए चार। 
क्यों केवल दो नयन पर, आँसू का अधिकार।।

कोई खुल कर के करे, अब किस पर विश्वास।
पासवर्ड जब सत्य का, है झूठों के पास।।

हाँ! स्वराज्य तो आ गया, आया नहीं सुराज।
देख अकेली फाखता, नहीं चूकता बाज।।

व्यर्थ कहावत हो गई, धन है दुख की खान।
अब तो सारे जगत में, केवल अर्थ प्रधान।।

जब शकुन्तला को गहे, बाहों में दुष्यंत। 
गर्मी, वर्षा, शीत सब, उसके लिए बसंत।।

-कन्हैयालाल अगवाल 'आदाब'

89, ग्वालियर रोड़, नौलक्खा, आगरा-282001
9917556752

अन्तस बहुत कुरूप - चक्रधर शुक्ल

कैसे  कैसे लोग हैं, बदलें अपना रूप।  
बाहर दिखते संत हैं, अन्तस बहुत कुरूप।।

वृक्ष काटने में लगे, वन रक्षक श्रीमान।
पर्यावरण बिगाड़ते, टावर लगे मकान।।

गौरैया भी सोचती, कैसे रहे निरोग।    
टावर तो फैला रहे, जाने कितने रोग।।

पीत वसन पहने मिली, सरसों जंगल खेत।
अमलतस के मौन को, क्या समझेगी रेत।।

गौरैया गाती नहीं, चूँ-चूँ करके गीत।
मोबाइल में बज रहा, अब उसका संगीत।।

मटर चना फूले-फले, सरसों गाये गीत।
कानों को अच्छा लगा, फागुन का संगीत।।

जो जितना गुणवान है, वो उतना गम्भीर।
आँखों में उसके दिखे, क्षमा, दया, शुचि, नीर।

पेड़ काटते ही रहे, दागी, तस्कर, चोर।   
घन-अम्बर बरसे नहीं, सूखा राहत जोर।।

-चक्रधर शुक्ल

एल.आई.जी. 01, बर्रा-6,
सिंगल स्टोरी, कानपुर-208027
9455511337
 

प्यास सभी की एक - सतीश गुप्ता

रोटी ने पैदा किए, कोटि-कोटि जंजाल। 
भूख प्यास को ढूँढते, सूखा और अकाल।।
भूख रेत पर तप रही, प्यास तपे आकाश।
नज़र देखती शून्य में, टंगी स्वप्न की लाश।।
भूख सभी की एक सी, प्यास सभी की एक।
एक भूख के मायने, निकले सदा अनेक।।
रोटी सपने में मिले, इस नगरी की रीत।  
भूख प्यास हिल मिल रहें, करें परस्पर प्रीत।।
भूख रही है युद्धरत, वृद्ध हुई उम्मीद। 
फाका मस्ती में मने, दीवाली या ईद।।
बोझा ढोए उम्रभर, बिना सींग का बैल। 
टिका रहा है टेक पर, पुश्तैनी खपरैल।।
दूर बहुत होते गये, महलों से फुटपाथ।
निर्धनता की मित्रता, हर गरीब के साथ।।
झेली उसने हर समय, दुख दर्दों की मार।
फुटपाथों पर जि़न्दगी, सुख से रहा गुजार।।
पत्थर के बुत दे रहे, जीने का वरदान।   
भूखे प्यासे प्रार्थना, करें अकिंचन प्राण।।
जो न मरी वह भूख है, रहती तीनों काल। 
जो न बुझी वह प्यास है, सदा रहे बेहाल।।

-सतीश गुप्ता

के-221, यशोदा नगर, कानपुर
9793547629

उगे कैक्टस देश - होशियार सिंह 'शंबर'

निर्दोषों की खोपड़ी, रहे कसाई तोड़। 
क्रमिक योग कितना हुआ, रहे आँकड़े जोड़।।

दोहा छंद सुहावना, गाये लय अरु ताल।
गाया जो सकता नहीं, उठता वहीं सवाल।।

पत्नी की बातें सुनी, तुलसी त्यागी गेह।
तपकर रामायण लिखी, जगत सिखायी नेह।।

बोये बीज गुलाब के, उगे कैक्टस देश।  
उठो उखाड़ो मूल को, यह कवि का संदेश।।

हरिजन वह जो हरि भजे, हरिजन के हैं राम।
माँ के वर आशीष से, मैं तो राम गुलाम।।

तीरथ सुख की कल्पना, पूरे हो सब काम।
मात-पिता, गुरु देवता, चारों तीरथ धाम।।

गीत, $गज़ल अरु दोहरे, लोकगीत अरु छंद।
कविता रचना में सदा, है स्वॢगक आनन्द।।

अर्पित जीवन कर दिया, जग पूरा विश्वास।
खोजे भी दुर्लभ रहे, ऐसे रत्न सुभाष।।

खड्डी पर कपड़ा बुने, कपड़ा नहीं शरीर।
रामदास बीजक गढ़े, गाते रहे कबीर।।

शब्द साधना से सजें, देते अर्थ सटीक।
 चरण तोड़ मत फेंकिये, नहीं पान की पीक।।

-होशियार सिंह 'शंबर'

द्वारा श्री देवेन्द्र सिंह  'देव' एडवोकेट              
1376, गली नं. 2, शास्त्री नगर, बुलंदशहर

चढ़ा नहीं अभिमान - शिवकुमार 'दीपक'

सदाचार की चोटियाँ, चढ़ा नहीं अभिमान।
झुककर चलता जो पथिक, चढ़ जाता चट्टान।
मन ही मन मुस्का रहे, नीर भरे तालाब।
जीवन लेकर आ रहा, लहरों का सैलाब।।
कपी रात भर झोंपड़ी, गर्म रहे प्रासाद। 
ठिठुर ठिठुर दुखिया करे, जाड़े का अनुवाद।।
कड़वी बातें साँच की, बोले जो इन्सान।     
तन जाते उस शख्स पर, चाकू, तीर कमान।।
आँगन में तुलसी जली, धूप सकी ना झेल।
इक तुलसी ससुराल में, जली छिडक़कर तेल।
गई सभ्यता गर्त में, छूट गए संस्कार।  
सबसे घातक देश में, नैतिक भ्रष्टाचार।।
राणा की सुन वीरता, खुलती आँखें बन्द। 
राणा बन सकते नहीं, मत बनिए जयचन्द।।
कोठी वाले गेट पर, खड़ा मिला इन्सान।
लेकिन ऊँची कोठियाँ, बेच चुकी ईमान।।
बटवारा घर में हुआ, बँटा माल, घर, द्वार।
उनको धन दौलत मिली, मुझको माँ का प्यार।
की अगुवानी महल ने, हुआ हास परिहास।
लगे छलकने शिशिर में, मदिरा भरे गिलास।।

-शिवकुमार 'दीपक'

बहरदाई, सहपऊ, हाथरस
9927009967

सर्द रात अखबार पर - अशोक 'आनन'

ओढ़ रजाई धुंध की, रख सिरहाने हाथ।   
सर्द रात अखबार पर, लेटी है फुटपाथ।।
बाँच रही है धुंध का, सुबह लेट अ$खबार। 
रात ठंड से मर गए, दीन-हीन लाचार।।
एक दीप तुम प्यार का, रखना दिल के द्वार।
यही दीप का अर्थ है, यही पर्व का सार।।
झाँके घूँघट ओट से, हौले से कचनार।   
भँवरे करते प्यार से, चुम्बन की बौछार।।
खुशियों के $खत बाँटता, आया पावस द्वार।
मुझे विरह की दे गया, पाती अबकी बार।।
जादू-टोना कर गई, सावन की बौछार।
काजल भी नज़रा गया, साजन अबकी बार।।
मुझको पावस दे गया, आँसू की सौगात।
सजकर निकली आँख से, बूँदों की बारात।।
बस्ती-बस्ती $खौफ है, घर-घर आदमखोर।
जान बचाकर आदमी, अब जाए किस ओर।।
बंद मिलीं ये खिड़कियाँ, बंद मिले सब द्वार।
अब तो सारा शहर है, दहशत से बीमार।।
गए प्रीत के डालकर, झूले मन की शाख।
चुरा रहे क्यों आज तुम, साजन मुझसे आँख।।

-अशोक 'आनन'

61/1, जूना बाज़ार, मक्सी, शाजापुर
9977644232

सद्गुण का अपमान - शैलजा नरहरि

हाथ पाँव चलते रहें, चलता रहे शरीर।      
ये मदिर सी देह ही, तेरी है ज़ागीर।।

अम्मा है घर की हँसी, अम्मा से घर बार।
अम्मा बजता साज है, कसा हुआ हर तार।।

मौलसिरी हँसती रही, मुरझा गए कनेर।
चकला बेलन पूछते, कैसे हो गई देर।।

कागज पीले हो गए, ताजे फिर भी बोल। 
प्यार प्रीत की चि_ियाँ, जब चाहे तब खोल।।

बहुत बड़ा दिल चाहिए, करने को गुणगान।
अकसर ओछों ने किया, सद्गुण का अपमान।

खण्ड-खण्ड उत्तर हुए, प्रश्न रह गए मौन।
जब आहत हैं देवता, उत्तर देगा कौन।।

साँसे जब तक साथ थीं, सब ने बाँटी प्रीत। 
धू-धू जलता छोडक़र, लौट गए सब मीत।।

छोटे-बड़े न देवता, छोटी बड़ी न रीत।     
घर बैठे भगवान से, करके देखो प्रीत।।

क्या मैं सबको बाँट दूँ, क्या मैं रक्खूँ पास। 
इस दुनिया ने जानकर, तोड़ा हर विश्वास।।

माँग भरी, आँखें भरी, भरे चूडिय़ों हाथ। 
साजन की देहरी मिली, छूटा सबका साथ।।

-शैलजा नरहरि

आर्किड -एच, वैली ऑफ क्लावर्स
ठाकुर विलेज, कांदिवली (पूर्वी), मुंबई-400101

Sunday, June 5, 2016

जीवन का नव दौर - घमंडीलाल अग्रवाल

आज़ादी के अर्थ को, देनी होगी दाद।      
जो भी मन हो कीजिए, दंगे, खून, फसाद।।

नदी किनारे वह रहा, प्यासा सारी रात।  
समझ नहीं पाई नदी, उसके मन की बात।।

गजदन्तों से सीखिए, जीवन का नव दौर।
खाने के हैं दूसरे, दिखलाने के और।।

मंत्री जी का आगमन, हर्षाता मन-प्राण।
सडक़ों की तकदीर का, हो जाता कल्याण।।

कोई तो हँसकर मिले, कोई होकर तंग।
दुनिया में व्यवहार के, अपने-अपने ढंग।।

जायदाद पर बाप की, खुलकर लड़ते पूत।
बहनें सोचें किस तरह, रिश्ते हों मतबूत।।

यश अपयश कुछ भी मिले, अपनाई जब पीर।
मीरा ने भी यह कहा, बोले यही कबीर।।

बीयर की बोतल खुली, पास हुए प्रस्ताव।
बाज़ारों में बढ़ गए, नून, तेल के भाव।।

करते हैं कुछ लोग यों, जीवन का शृंगार।  
एक आँख में नीर है, एक आँख अंगार।।

यह रोटी को खोजता, वह सोने की खान।
अपने प्यारे देश में, दो-दो हिन्दुस्तान।।

-घमंडीलाल अग्रवाल

785/8, अशोक विहार, गुडग़ाँव-122006
9210456666