विविधा

विविधा : हिंदी की साहित्यिक पत्रिका

Saturday, October 14, 2023

दोहा छंद की प्रासंगिकता

दोहा सदाबहार छंद 

दोहा भारतीय सनातनी छंदों में से एक हैं, जो सदियों लम्बी यात्रा तय करके आज नया दोहा या समकालीन दोहा अथवा आधुनिक दोहा बन चुका है। जिस प्रकार भाषाओं का क्रमिक विकास होता है उसी प्रकार साहित्य की विधाओं का विकास भी क्रमिक रूप से ही होता है। इसकी कोई निश्चित अवधि नहीं होती। दोहा छंद के नया दोहा बनने की भी कोई अवधि निश्चित नहीं है। हाँ इतना अवश्य कहा जा सकता है कि नया दोहा बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में फला-फूला। हालांकि इसकी नींव पहले ही रखी जा चुकी थी। मैथिलिशरण गुप्त जी का यह दोहा इस तथ्य की पुष्टि करता है-

        अरी! सुरभि जा, लौट जा, अपने अंग सहेज।

        तू है फूलों की पली, यह काँटों की सेज।।

दोहा की मारक क्षमता और अर्थ सम्प्रेषण की सटीकता के कारण यह सदाबहार छंद बना हुआ है| समय के साथ इसके कथ्य में परिवर्तन अवश्य होता रहा है, किन्तु इसके शिल्प में कोई बदलाव नहीं हुआ| दोहे की प्रभावी सम्प्रेषण क्षमता आज भी बरक़रार है| यह केवल मिथक है कि ग़ज़ल के शे’र जैसा प्रभाव किसी अन्य छंद में नहीं है| सच तो यह है कि यह रचनाकार की प्रतिभा और कौशल पर निर्भर करता है कि वह किस छंद में कितनी गहरी बात कह सकता है| समर्थ दोहाकार दोहे के चार चरणों अर्थात दो पंक्तियों में जो कह सकता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है| यहाँ कवि चंदबरदाई के दोहे का उल्लेख करना समीचीन होगा-

    चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमान|

    ता ऊपर सुल्तान है, मत चूक्कै चौहान||

मात्र 48 मात्राओं में कवि ने अपने सम्राट मित्र पृथ्वीराज चौहान को न केवल सुल्तान की सही स्थिति (लोकेशन) बता दी, बल्कि अवसर नहीं चूकने का सन्देश भी दे दिया| इतना सटीक और प्रभावी सम्प्रेषण केवल दोहा जैसे छंद में ही संभव है| इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब एक दोहा ने पासा पलट दिया| कवि बिहारी का राजा जयसिंह को सुनाया गया यह दोहा भी इसी श्रेणी का है-

    ‘नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल|

    अली कली में ही बिन्ध्यो, आगे कौन हवाल||

      दोहा अपनी अनेक खूबियों के कारण सदियों से लोगों के मन मस्तिष्क में रचा बसा है| यह कभी सूफिओं और फकीरों का सन्देश वाहक बन जाता है तो कभी दरबारों की शोभा बन जाता है| कभी प्रेमी-प्रेमिका के बीच सेतु बन जाता है तो कभी जन-सामान्य की आवाज़-

    दोहा दरबारी बना, दोहा बना फ़कीर|

    नये दौर में कह रहा, दोहा जीवन पीर||/रघुविन्द्र यादव 

दोहे का कथ्य चाहे जो रहा हो यह हर दौर में महत्वपूर्ण रहा है, दोहा आज भी लोकप्रियता के शिखर पर है| मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि दोहा लघुता में महत्ता समाये हुए है| दोहा भविष्य में भी सामर्थ्यवान कवियों का चहेता रहेगा ऐसी आशा और विश्वास है|

                                                            -रघुविन्द्र यादव


Saturday, September 23, 2023

सोच का अंतर

एक सेठ के पास बहुत पैसा था| समय अनुकूल था जिस भी काम में हाथ डालता था वारे-न्यारे हो जाते थे | पैसा बढ़ने के साथ-साथ सेठ का अहम और दिखावा भी बढ़ने लगा| लिहाजा शानोशौकत पर खूब खर्च करने लगा| जो छोटे व्यापारी उसके साथ मिलकर काम करते थे सबको एक-एक करके बाहर कर दिया| उसे लगने लगा था कि वही अपने धंधे का बेताज बादशाह है| 

लेकिन वक़्त सदा एक जैसा नहीं रहता| उसने एक बड़ा सौदा किया, जिसमें सारी जमा पूँजी लगा दी| किन्तु जिस पार्टी के साथ सौदा किया था उसके हिस्सेदारों में आपसी विवाद हो गया और मामला अदालत में चला गया| नतीजतन सौदा रुक गया और सेठ का पूरा पैसा जो पेशगी दिया था वह फंस गया| अब न सेठ के पास माल था और न पैसा| अपने छोटे हिस्सेदारों को वह पहले ही निकाल चुका था, इसलिए कोई धन देने वाला भी नहीं था| हालत यह हुई कि अपने खर्चे पूरे करने के लिए भी उसे अपनी संपत्तियां बेचनी पड़ रही थी| धीरे-धीरे काम-धंधा सब ठप्प हो गया तो घर बेचने की नौबत आ गई| 

सेठ की पत्नी खानदानी घर की बेटी थी| वह दिखावे पर खर्च करने की बजाये वक़्त-बेवक्त अपने नौकरों, पड़ोसियों और दूसरे ज़रुरतमंदों की मदद कर दिया करती| इसलिए लोग उनके प्रति प्रेम और श्रद्धा रखते थे| 

एक दिन जब सेठ ने सभी नौकरों को इकट्ठा करके बताया कि उनकी माली हालत अब ठीक नहीं है और वे अपना मकान-दुकान बेचकर किसी छोटे शहर में जा रहे हैं| इसलिए सभी अपना हिसाब करलें और कल से कोई काम पर न आये| यह बात आग की तरह शहर में फ़ैल गई | 

जिन लोगों की सेठानी ने वक़्त-बेवक्त मदद की हुई थी, उन तक जब यह बात पहुंची तो वे लोग अपनी जमा पूँजी और गहने लेकर हाजिर हो गए| बोले सेठानी जी, आपने हमारे बुरे वक़्त में मदद की थी, आज आपका वक़्त बुरा है हम भी कुछ सहयोग करना चाहते हैं| सेठानी ने खूब मना किया| लेकिन लोगों ने यह कहकर चुप कर दिया कि आपने दान दिया था, हम उधार दे रहे हैं, जब आपका फंसा हुआ पैसा मिल जाए तो सूद समेत दे देना, लेकिन लेना पड़ेगा| 

सेठानी के पास देखते-देखते लाखों रूपये जमा हो गए| उधर सेठ, जिसे मांगने पर भी शहर में कोई फूटी कौड़ी देने को तैयार नहीं था दूर बैठा यह सब खेल देख रहा था| जब लोग चले गए तो सेठ ने पूछा, यह सब क्या है? मैं तीन महीने से लोगों से पैसा मांग रहा हूँ, मुझे कोई सेठ भी पैसा देने को तैयार नहीं और तुम्हें जबरन वे लोग भी पैसा और गहना दे गए, जो हमारे ही टुकड़ों पर पलते थे|

सेठानी बोली- यह तुम्हारे दिखावे और अहम तथा मेरे दान और स्नेह का अंतर है सेठ जी| आपने दिखावे पर धन बहाया, मैंने लोगों की मदद की| आपने धनी होने का अहम पाला, मैंने इसे कुदरत की कृपा समझकर लोगों के साथ स्नेह बढाया| आपको लगता था लोग आपके टुकड़ों पर पल रहे हैं, मुझे लगता था उन्हीं की बदौलत हमारा व्यापार बढ़ रहा है| आपने जरूरत के समय धन लगाने वाले, अपने छोटे व्यापारी साथियों को भी दुत्कार दिया, मैंने जो रूठे हुए थे, उन्हें भी मनाया है|

सेठ जी, याद रखना जोहड़ का पानी पीने के काम भले ही न आये, पर आग बुझाने के काम तो आ ही जाता है| 

रघुविन्द्र यादव

Saturday, July 22, 2023

धरतीपुत्र मुलायम सिंह यादव का राजनैतिक जीवन : एक रोचक कृति

"धरतीपुत्र मुलायम सिंह यादव का राजनैतिक जीवन" अहीरवाल में जन्में और दौसा में सेवारत श्री राजेन्द्र यादव 'आजाद' द्वारा सम्पादित और राइजिंग स्टार्स, दिल्ली द्वारा प्रकाशित 248 पृष्ठों की एक ऐसी कृति है जिसमें स्वर्गीय मुलायम सिंह यादव के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर उनके जानकारों, उनके सानिध्य में रहे लोगों और उनके प्रशंसकों द्वारा प्रकाश डाला गया है| इनमें कवि, शिक्षक, पत्रकार, राजनेता, डॉक्टर, वकील, इंजिनियर और सामान्यजन भी शामिल हैं| लेखक ने अधिकतर टिप्पणियाँ और आलेख सोशल मीडिया के माध्यम से संकलित किये हैं|
पुस्तक की शुरुआत कवि उदय प्रताप सिंह  की काव्यात्मक श्रद्धांजली से की गई है| इसके बाद धरतीपुत्र का जीवन परिचय, नेताजी का हिंदी के प्रचार-प्रसार में योगदान, पांच दशक का लम्बा सफ़र, शिक्षक से रक्षामंत्री तक का सफ़र आदि आलेख दिए गए हैं | 
संपादक राजेंद्र यादव ने मुलायम सिंह यादव के लगभग दो दर्जन किस्से स्वयं प्रस्तुत किये हैं, वहीं चन्द्र भूषण सिंह के हवाले से भी लगभग अढाई दर्ज़न नेताजी से जुडी बातों को स्थान दिया गया है| पुस्तक में लगभग 80 ऐसे लोगों के उद्गार भी शामिल किये गए हैं, जिन्होंने अपने निजी संस्मरण साझा किये हैं| इनमें पत्रकार राजीव रंजन, उर्मिलेश, वीर विनोद छाबड़ा, राजीव नयन बहुगुणा, योगेश यादव, हाफ़िज़ किदवई, समालोचक वीरेंदर यादव, केन्द्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव, डॉ. लाल रत्नाकर, लक्ष्मी प्रताप सिंह, सत्येन्द्र पी एस, रामप्रकाश यादव, कर्नल शरद सहारण, आवेश तिवारी, प्रख्यात चिकित्सक डॉ ओमशंकर यादव और अन्य बहुत से नामचीन लोगों द्वारा लिखे गए प्रसंग प्रकाशित किये गए हैं| 
पुस्तक में नेताजी के देहावसान के समय आये कुछ शोक संदेशों को भी स्थान दिया गया है, जिनमें मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, पूर्व सांसद डॉ कर्णसिंह यादव, वेद प्रकाश मीना, राव बिजेंद्र सिंह (रानी की ड्योढ़ी), सोबरन सिंह, विजेंद्र सिंह मुंड, रमेश सिंह आदि के उदगार शामिल हैं| 
पुस्तक में जहाँ नेताजी मुलायम सिंह यादव के जीवन की तथ्यात्मक जानकारी उपलब्ध है, वहीं उनके द्वारा किये गए कार्यों का लाभार्थियों और प्रत्यक्ष्दार्शियों द्वारा उपलब्ध करवाया गया ब्यौरा भी उपलब्ध है| उनके जीवन के रोचक किस्सों ने पुस्तक को रोचक बना दिया है| पुस्तक में नेताजी के बहुत से छायाचित्रों को भी स्थान दिया गया है| जिनमें कहीं सेना के टैंक पर खड़े होकर सैनिकों से मिल रहे हैं तो कहीं चौधरी चरण सिंह और कासीराम जी के साथ नजर आ रहे हैं| कहीं परिवार के सदस्यों, कहीं अभिन्न मित्रों और कहीं राजनेताओं के साथ हैं| 
आवरण पर नेताजी का सुंदर रंगीन छायाचित्र पुस्तक को आकर्षक बना रहा है| राजेंद्र जी अगर थोड़ी मेहनत और कर लेते तो मुझे उम्मीद है, कुछ और अच्छे आलेख नेताजी के जानने वालों से मिल सकते थे और पुस्तक की सामग्री का और बेहतर वर्गीकरण किया जा सकता था| लेकिन वर्तमान स्वरुप में भी पुस्तक पठनीय और रोचक है| कैसे एक साधारण सा व्यक्ति धरतीपुत्र बन गया, यहाँ जानने के लिए यह पुस्तक पढ़ी जानी चाहिए|
इस श्रम साध्य कार्य के लिए राजेंद्र यादव 'आजाद' बधाई के पात्र हैं|  

Tuesday, June 20, 2023

अहीरवाटी बोली का पहला कुण्डलिया छंद संग्रह है : आयो तातो भादवो

“आयो तातो भादवो” श्री सत्यवीर नाहड़िया को थोड़ा दिन पहल्यां छप्यो अहीरवाटी बोली को कुण्डलिया छंद संग्रह सै| अमें नाहड़िया का लिक्ख्या हुया 300 छंद छप्या सैं| नाहड़िया नै दुनियादारी सै जुड़ी घणखरी बातां पै छंद लिक्ख्या सैं| छन्दां म्हं रिश्ता-नाता, बेरोजगारी, महँगाई, तीज-त्यौहार, भाण-बेटी, खेल-खिलाड़ी, आबादी, संत-फकीर, नेता-महापुरुष, फौजी, जात-पात, धर्म का झगड़ा, गरमी-सरदी, मेह, लोक-परलोक, खेती-किसानी, चीन, पकिस्तान, भासा, दान-दहेज़, कैंसर, करोना, तीर्थ-नहाण, चेले-चमचे, गुरु, डीजे, कर्ज़ा-हर्जा सारी बात कवि नै लिक्खी सैं|

कवि ने गावां म्हं कही जाण आळी कहावत अर मुहवारा भी अपणा छन्दां म्हं ले राख्या सैं, इनका लेणा सैं छंद बहोत आच्छ्या बणगा| यो छंद देखो-

आयो तातो भादवो, पड़ै कसाई घाम।

के तै मारै घाम यो, के साझा को काम।

के साझा को काम, कहावत घणी पुराणी।

फूंक बगावै खाल, बड़ां की बात सियाणी।

फिक्को साम्मण देख,  नहीं झड़ लांबो लायो।

बचकै रहियो ईब, घाम भादो को आयो।

तीन सौ छन्दां म्हं कवि नै गागर म्हं सागर सो भर दियो| या तो बात हुई छन्दां का बिसय की|

अर जित तायं छन्दां का सिल्प की बात सै कुण्डलिया छंद लिखणा आसान काम ना सै, इसम्हं दोहा अर रोला छंद को ज्ञान होणों जरुरी सै अर साथ म्हं कुण्डलिया की भी जानकारी होणी चावै, जब जाकै कुण्डलिया लिक्ख्यो जाय सै| पर नाहड़ियो घणा ही दिनां सै छंद लिख रह्यो सै अर कती एक्सपर्ट हो रह्यो सै| किताब का छन्दां म्हं कमी को कोई काम ना सै| अर अं किताब की एक ख़ास बात और सै, वा या के या किताब अहीरवाटी बोली का छन्दां की पहली किताब सै, अं किताब सै पहल्यां छन्दां की किताब तो घणी ही छप लई, पर अहीरवाटी बोली म्हं आज तायं ना छपी| यो काम नाहड़िया नै लीक सै हटकै करयो सै| नाहड़िया जी घणी बधाई को पातर सै| यो छंद भी देख ल्यो-

हरयाणा की रागनी, रही सदा बेजोड़|

टेक कळी अर तोड़ की, कौण करैगो होड़|

कौण करैगो होड़ अनूठी सै लयकारी|

छह रागां की तीस, रागनी लाग्गैं न्यारी|

किस्से अर इतिहास, सदा सुर कै म्हं गाणा|

रीत गीत को मीत, रहै साईं न्यूँ हरयाणा||

किताब को कवर, छपाई अर कागज सारी चीज बढ़िया सैं, अर रेट भी 175 रुपया वाजिब ही सै| कुल मिलाकै बात या सै कि किताब नै खरीद कै पढोगा तो थारा पैसा वसूल हो जायंगा|

रघुविन्द्र यादव


Thursday, May 4, 2023

कटु यथार्थ की बिम्बावली : आस का सूरज

    दोहा तथा कुंडलिया छंद के क्षेत्र में विशेष आवाजाही रखने वाले सशक्त हस्ताक्षर रघुविन्द्र यादव का पहला ग़ज़ल संग्रह है – आस का सूरज। इसमें सम्मिलित 91 ग़ज़लों के कथ्य का उम्दापन, किसी भी कोण से यह आभास नहीं होने देता कि यह पहला संग्रह है। अपनी बात के अन्तर्गत ग़ज़लकार ने लिखा है – जब आँचल परचम बन सकता है तो ग़ज़ल भी धारदार और सच कहने का औजार बन सकती है। हमारी ग़ज़लों में अंतिम व्यक्ति की बात, समाज के हालात, पूंजी के उत्पात और जाति-धर्म के नाम पर हो रहा रक्तपात ही प्रमुख मुद्दे हैं।

    उपरोक्त कथनी पर खरी उतरती हैं ये ग़ज़लें। अपने कथ्य में विशेष हैं ये और विशेष हैं सम्प्रेषणीयता के गुण में। बात सीधी-सी, पर घाव गहरा। है न कमाल! लुकाव-छुपाव में कुछ नहीं रखा, भला लगे या बुरा, जो कहना सो डंके की चोट पर कहना। फिर निशाने के सामने राजा हो या प्रजा, कोई फ़र्क नहीं पड़ता। इस आशय से वे लिखते हैं –

दिन को केवल दिन लिखना है हमको तो

जिनको सच कड़वा लगता है रूठेंगे।
***
बोझ ही कहते रहे समझा नहीं अपना
वोट जिनको थे दिए सरकार की खातिर।
            ***
बेच देगा मुल्क भी कल रहनुमा
दिख रहे हैं आज ही आसार से।

     दो राय नहीं कि सच्चाई सदा कड़वी होती है लेकिन जिस प्रकार मलेरिया के निवारणार्थ कड़वी कुनीन खा कर सुकून मिलता है, उसी प्रकार मिठास के मुहाने की तमन्ना है तो पहले कड़वाहट का पान करना ही होगा। सामाजिक-सांस्कृतिक विद्रूपता का बिम्ब देखिए –

कानों को पीड़ा देते हैं

बजते फूहड़ गीत कबीरा। 

सत्ता की खामियों की पोल खोलना लेखनी का धर्म समझकर लिखा है –

सच बोला तो चुन देगी,

सत्ता अब दीवारों में।
***
रहजन भी तो शामिल हैं
अपने चौकीदारों में। 

    ग़ज़ल संख्या 10 में भावनात्मकता तथा यथार्थ के अनेकानेक बिम्ब रचे गए हैं। ग़ज़ल संख्या 11 पाठक को स्वयं को भी कसौटी पर कस कर देखने का आह्वान करती है –

एक दर बंद था, दूसरा था खुला,

फैसला तुम करो, अब ख़ुदा कौन है?
      ***
आदमी दर्द से मर रहे रात-दिन,
देखते सब रहें, बाँटता कौन है? 

    युवावस्था के लिए यह निष्कर्षात्मक टिप्पणी काबिलेगौर है –

निराशा में जब तक जवानी रहेगी।

अधूरी सभी की कहानी रहेगी। 

        एक अन्य कहन का सौन्दर्य निहारिए –

सजा तय करेगी अदालत खुदा की

वहाँ पर तुम्हारी वज़ारत नहीं है। 

    सामाजिक विसंगति पर कटाक्ष देखिए –

घोड़ों पर पाबंदी है

खूब गधों को घास मिले। 

    प्रतीक, बिम्ब तथा व्यंजना का अनूठा मेल प्रस्तुत करता शेर है –

कंगूरों पर आँच न आई,

नींव के पत्थर हिले हुए हैं। 

    आधी आबादी के प्रति सामाजिक रवैये के विषय में बहुत कुछ कहता है यह शे’र –

जिसके आँगन बेटी जन्मी

वो पहरेदारी सीख गया। 

    कन्या-भ्रूण हत्या के जिम्मेदार कारकों को कैसे बख्शा जा सकता है –

मार रहे ख़ुद अपनी बेटी

दें किसको इल्ज़ाम कबीरा। 

    विडम्बना देखिए, जिस प्रेमी-युग्ल के प्यार के किस्से अमर हैं, आज उनके वंशज प्यार के नाम पर रीते-थोथे हैं-

लैला-मजनूँ के वंशज भी,

दो दिन करते प्यार कबीरा। 

    जब नेता जी वादे भूल जायें तो वार पर वार करना जनता का कर्तव्य है-

भूल गए नेता जी वादे,

करने होंगे वार कबीरा। 

    प्राकृतिक विपदा, उसके प्रभाव और लोगों के त्याग का प्रतिबिम्बन एक साथ सामने आया है –

देश पर संकट पड़ा है लोग डर कर जी रहे हैं

जान की बाजी लगा कोई दवाएँ दे रहा है। 

    जनता की तंगहाली देखकर राजाजी का ऐशो-आराम खटकता है इसलिए लेखनी लिखने से नहीं चूकती –

अच्छे दिन आएँ या जाएँ, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता,

हम तो मरने को जन्में हैं, आप अमर हैं राजाजी। 

    दुनिया में सम्पूर्ण कोई नहीं इसलिए अपनी भी पड़ताल करनी बनती है –

मौत सभी को आएगी

निज कर्मों का ख़्याल करें। 

    ऐतिहासिक सत्य बयाँ करती हैं ये पंक्तियाँ–

क़लमों के भी शीश कटे हैं

जब-जब तीखी धार हुई है। 

    लेखकीय निर्भीकता से भी रू-ब-रू हो लेते हैं – 

मुझको कोई खौफ नहीं,

उसकी नेक नज़र में हूँ। 

    रचनाकार रचना करे और जागरण की बात न करे, यह हो नहीं सकता। यह तथ्य इन ग़ज़लों पर भी लागू होता है – 

मन को तू बीमार न कर।

हार कभी स्वीकार न कर।
      ***
बेटों को भी देने होंगे
कुछ अच्छे संस्कार कबीरा।
      ***
जो लोगों को राह दिखाए
लिख ऐसा नवगीत कबीरा। 

    ग़ज़ल के शिल्प-विधान से अनभिज्ञ हूँ इसलिए इस विषय में चुप रहना ही श्रेयस्कर समझती हूँ। हाँ, कथ्य से प्रभावित हो कर कहना चाहूँगी कि इन ग़ज़लों की यात्रा पर निकलेंगे तो पग-पग पर ऐसे डेरे मिलेंगे, जो कहेंगे – पल दो पल ठहर कर जाइए, हमारे पास सुच्चे मोती हैं। एक भी मोती नकली निकले तो जो चाहे सजा भुगतेंगे। बेहतर होता, उर्दू के कठिन-शब्दों के अर्थ पृष्ठ के अंत में दर्शा दिए जाते। त्रुटिरहित सुन्दर छपाई, स्तरीय क़ाग़ज और आकर्षक मुखपृष्ठ के होते यह ग़ज़ल संग्रह संग्रहणीय बन पड़ा है। 

    हार्दिक कामना है, रघुविन्द्र यादव की लेखनी, रात को रात लिखती हुई, निर्बाध गति से चलती रहे।

-कृष्णलता यादव
677, सेक्टर 10ए
गुरुग्राम 122001
पुस्तक –आस का सूरज 
लेखक – रघुविन्द्र यादव  
प्रकाशक – श्वेतवर्णा प्रकाशन, दिल्ली 
पृष्ठ  - 104, मूल्य – 175रु. (पेपरबैक)